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काशी, मथुरा क्यों बाक़ी हैं

630 ई. में मक्का-मंदिर की 360 मूर्तियों को तोड़ उसे मस्जिद में बदल दिया गया था, वैसे ही जैसे 1528 ई. में अयोध्या के राममंदिर को तोड़ मस्जिद बनी थी जो सैकड़ों सालों के ख़ूनी संघर्ष और क़ानूनी लड़ाई के बाद 2019 ई. में मंदिर को वापस मिल गई।

ऐसा नहीं है कि मक्कावाले अपने धर्म और देवी-देवताओं की रक्षा के लिए बलिदान नहीं हुए। 610 ई. से 622 ई. तक उन्होंने शांतिपूर्ण इस्लामी हमलों का शांतिपूर्ण जवाब दिया, 623 ई. से 628 ई. तक रक्षात्मक हिंसक लड़ाई लड़ी और अंत में 630 ई. में संधि के खिलाफ धोखे से किये हमले में हार गए जिसके बाद उन्हीं के कबीले के नये-नये बने मुल्लों ने उन्हें कोई मौक़ा दिए बग़ैर मक्का-मंदिर को मक्का-मस्जिद में बदल दिया और इस्लाम न कबूलने वालों को उन्हीं के भाईबंदों ने मौत के घाट उतार दिया हालाँकि 610 ई. से 630 ई. के बीच मुसलमानों के साथ कभी ऐसा नहीं किया गया था। सनद रहे कि 610 ई. में ही मोहम्मद बिन अब्दुल्ला ने खुद को पैग़म्बर-ए-इस्लाम घोषित किया था और ऐतिहासिक रूप से इसे ही इस्लाम का आरम्भ माना जाता है।

मक्कावासी भी उसी समावेशिता और दया की संस्कृति

के शिकार हुए जिसके हिंदू भी होते रहे हैं लेकिन बड़ी संख्या, आर्थिक समृद्धि, विकसित सभ्यता और सतत् संघर्ष ने हिंदुओं को पूरी तरह मिटने से बचा लिया। यह भी सही है कि इस दौरान (636 ई. से 1947 ई. तक) 40 हजार से अधिक बड़े देवस्थान ध्वस्त किए गए और 10 करोड़ ऊपर हिंदू-बौद्ध-सिख-जैन मतावलंबियों के नरसंहार भी हुए।

क्या हो जब अरब के मूलनिवासी अपने मूलधर्म के सबसे महत्वपूर्ण मक्का-मंदिर की घर-वापसी के लिए उठ खड़े हों जैसे 610ई.– 630ई. के बीच उसे बचाने के लिए किया था?

अगले 20 सालों में यह संभव हो भी सकता है। राजकुमार सलमान द्वारा संस्कृति-मनोरंजन के क्षेत्र में भारी निवेश की अनुमति बहुत कुछ कहती है। मनोरंजन और संस्कृति अंततः लोगों को अपनी जड़ों की ओर ले जाएगी जैसा कि भारतीय संगीत घरानों से जुड़े मुस्लिम परिवारों के संस्कार और रुझान से भी पता चलता है। भक्ति आन्दोलन के दौर के कबीर-रसखान-रहीम भी इसकी मिसाल पेश करते हैं।

ईरान में तो ऐसे संकेत अभी से मिल रहे हैं क्योंकि वहाँ की युवा पीढ़ी में इस्लाम-पूर्व की अपनी पारसी विरासत और पूर्वजों के प्रति रुझान साफ़ दिख रहा है। पारसी मंदिरों और अगियारी समेत उनके प्रतीकों की सुरक्षा और संरक्षण पर वहाँ विमर्श हो रहा है।

वैसे भारत के गंगा-यमुनी भाईजानों की फिलहाल यह चिंता है कि अयोध्या के रामजन्मस्थान मंदिर की घरवापसी को वे इसलिए लटका पाए कि मंदिर के अवशेषों को बाबरी मस्जिद (जिसे 1946 तक जन्मस्थान मस्जिद कहते थे) के नीचे दबा दिया गया था लेकिन काशीविश्वनाथ मंदिर और मथुरा कृष्णजन्मस्थान मंदिर के मुख्य परिसरों में ही मस्जिदें बनी हुई हैं और उनके नीचे और इर्दगिर्द मंदिर-ध्वंस के प्रमाण बिखरे पड़े हैं जिन्हें बिना किसी खुदाई के नंगी आँखों से देखा जा सकता है और जिसे लाखों श्रद्धालु हर साल देखते हैं और अपने साथ उनकी स्मृतियाँ भी लेकर जाते हैं जिन्हें अपने गाँव-मोहल्ले-घर के लोगों को भी सुनाते होंगे।

जैसे हिंदुओं ने राममंदिर को वापस लिया और काशी-मथुरा समेत हजारों मंदिरों को हमलावर विदेशी मजहबों के कब्ज़े से मुक्त कराने की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं, वैसे ही यूरोप-अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासियों में ईसायत-पूर्व के अपने धर्मों और देवी-देवताओं में आकर्षण बढ़ रहा है। इतना ही नहीं, उनका मानना है कि सनातन से उनका नैसर्गिक संबंध है क्योंकि सनातन की तरह उनके धर्मों में भी प्रकृति पूज्य है और वे अपने ईश्वर और धर्म के अलावा दूसरी सभ्यताओं के ईश्वर और धर्म को भी सम्मान देते हैं जिसकी ईसाइयत और इस्लाम में सख़्त मनाही है।

वैसे मक्का में मक्केश्वर मंदिर की घरवापसी का सबसे बड़ा तात्कालिक कारण होगा पेट्रोल के सस्ते विकल्प की तलाश और अमेरिका-रूस द्वारा अपने तेल के भंडारों से तेल-शोधन को शुरू कर देना। जिन्हें इस बात पर संदेह हो वे 1991 और 1991 के बाद के रूस पर एक नज़र डाल लें। मूलतः आर्थिक कारणों से ढह गए कम्युनिस्ट रूस के शहर लेनिनग्राद का नाम फिर से सेंट पीटर्सबर्ग कर दिया गया, लेनिन की मूर्ति तोड़ दी गई और सेंट पीटर की खड़ी कर दी गई। पिछले 30 सालों में चीन में भी कन्फ़्यूशियस की ज़ोरदार वापसी हुई है। जो बात तय है वह यह कि सांस्कृतिक-धार्मिक घरवापसी आंदोलन के विरोध में ईसाइयत, इस्लाम और साम्यवाद का गठजोड़ खड़ा मिलेगा क्योंकि यह इनके अस्तित्व की लड़ाई होगी जिसके लिए चर्च पानी की तरह पैसा बहायेगा।

– चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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