छद्म नारीवाद, मानव अधिकार आदि अमेरिका और ईसाईयत के विस्तारवाद नीति के हथियार हैं…
इस्लाम और ईसाई समुदाय एक ही सिक्के के दो पहलू है और दोनों की एक नीति है — अपनी महत्वाकांक्षी विस्तारवादी नीति , जहाँ आज इस्लाम आज नंगा हो चुका है उसकी असलियत सब जान चुके है वही ईसाई समुदाय अपना काम बेहद शातिराना ढंग से और चुपके छुपके कर रहा है वो हमेसा हिन्दुओ को कुछ प्रलोभन , चंगाई सभा , ईश्वरीय चमत्कार ,गरीबी और अशिक्षा का प्रयोग धर्मान्तरण में करता है ।।
हर जानकार हिंदू को धर्मान्तरण में प्रयोग किये जाने वाले उन तथ्यों से रूबरू होना चाहिए जिनका प्रयोग धर्मान्तरण के लिये किया जाता है। आज हम बात करेंगे महिलाओ के अधिकार की।
जब भी हम धर्म की बात करते है तो सबसे पहले एक बात सामने आती है धर्म मे महिलाओ की स्थिति क्या है ,किसी भी परिवार की सबसे अहम कड़ी है उस परिवार की महिला …. जिसे आप तोड़ लो बाकी सब टूट जाएंगे , परिवार में यदि एक महिला ने धर्मान्तरण कर लिया तो यकीन मानिए परिवार के सभी सदस्यों का धर्मान्तरण निश्चित है ,और ऐसा करने के लिए ईसाई मिशनरियों ने हिन्दू धर्म मे स्त्रियां एक बंधुआ मजदूर है ऐसा प्रसारित किया और इसमें उन मशीनरियों का सहयोग किया नारीवादी संस्थाओ ने (बाकायदा पैसे लेकर , और सोची समझी नीति के तहत)।।
इन छद्म नारीवाद ने सनातन को सबसे ज्यादा तोड़ा और कुछ महिलाएं तो अनजाने में ही इस कुचक्र का हिस्सा बन गयी खैर इसपे कभी विस्तृत पोस्ट करूँगा अभी आज हम ईसाई समुदाय में महिलाओं की स्थिति देख लेते है जिसे एक पर्दे के पीछे रखा जाता है , अब समय है कि उस पर्दे को हटाया जाए ।।
हम जब भी बात करते है महिला अधिकारों की तो अनायास उँगली पश्चिमी देशों की महिलाओं की शक्तिशाली उपस्थित की ओर चली जाती है कि हमे वैसे ही अधिकार मिलने चाहिए , लेकिन कहा जाता है ना कि दूर के ढोल सुहावने होते है वही स्थिति यहाँ भी है —
पाँच सौ साल पहले जो ‘चर्च में सुधार’ (Reformation) हुआ उससे कैथोलिक चर्च का यूरोप के ऊपर से एकछत्र अधिकार हट गया । ऐसा प्रोटेस्टेंट जैसे ‘विरोधी’ और असहमत ईसाई आन्दोलनों के बनने से हुआ ।आधुनिक इवेंजलिकैल्स इसे जनतंत्र, स्वतंत्रता और समानता की ओर पहले तर्कसंगत कदम के रूप में देखते हैं ।
सच में ऐसा कुछ भी नहीं था। यह बाइबिल के मूल अर्थ पर वापस पहुँचने का एक प्रयत्न था। बाकी सभी झूठ था और खतरनाक काफिरों और मुशरीकों को जन्म देता था। इसका परिणाम था सोलहवीं शताब्दी का स्त्रियों का नरसंहार, जिसमें पीड़ितों का एक ही अपराध था, स्त्री होना। हम इसको ‘विच-बर्निंग’ (विचेस को जलाने) के नाम से जानते हैं। यह उन्नीसवीं शताब्दी तक चलता रहा । अगर हम लिंग समानता की बात करें तो स्त्रियों के नरसंहार के विषय में कैथोलिक ओर प्रोटेस्टेंट चर्च दोनों ही बराबर से दोषी हैं।
अजेष्ठ त्रिपाठी के द्वारा लिखे गए इस शानदार पोस्ट को पूरा पढ़ने के लिए उनके ब्लॉग पर यहाँ क्लिक करें:
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