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आर्यावर्त से ग़जवा-ए-हिंद में हिन्दू कहाँ?

गणित, रसायन शास्त्र, विज्ञान की अन्य शाखाएं, चिकित्सा शास्त्र, औषधि शास्त्र, खगोल शास्त्र, शिल्प कला, भवन निर्माण, दर्शन शास्त्र……. आधुनिक जीवन शैली के लिए आवश्यक आप जिस भी ज्ञान की ओर देखेंगे उसकी आधार-शिला भारत के प्राचीन वांग्मय से आई मिलेगी। ये वांग्मय जिस वृहत्तर भारत में जन्मा था उसमें अफगानिस्तान, गिलगित, बाल्टिस्तान, ख़ैबर-पख्तूनिस्तान, पश्चिमी पंजाब, बलोचिस्तान, सिंध, बांग्ला देश भी आते थे. ये सब भारत का भाग थे. भारत के हर तरह से गुणवान, बुद्धिमान, सक्षम होते हुए भी देश का ये 2/5 भाग आज गुलाम है. सांस्कृतिक दृष्टि से देखें तो इंडोनेशिया, बाली, सुमात्रा इत्यादि क्षेत्रों में हमारी ही संस्कृति थी. इस है को थी में बदलने का क्या कारण है ? आखिर ऐसा क्यों हुआ ?

 

 

जिस तरह के इस्लामी आतंक के कार्य आज सीरिया, ईराक़, अफगानिस्तान, नाइजीरिया, अल्जीरिया, सूडान, ऑस्ट्रेलिया, इटली, इंडोनेशिया, ईरान, कंपूचिया, चीन, जर्मनी, डेनमार्क, फ्रांस, ब्रिटेन, तुर्की, थाईलैंड, पाकिस्तान, बांग्ला देश, मलेशिया, स्पेन, हालेंड, अमरीका में हो रहे हैं वैसे आक्रमण भारत पर हजारों वर्ष से हो रहे हैं. ऐसे आक्रमणकारी भारत में सदा से आये हैं. इनसे हम सदा से निबटते भी रहे हैं. पारसीक-असुर, यवन, तुर्क…. न जाने कब से भारत हमलों का शिकार है!

इसका मुख्य कारण भारत के पास के देशों में कृषि योग्य भूमि का कम होना, मरुस्थल तथा अनुर्वर क्षेत्र अधिक होना, सिंचाई के लिए पानी का अभाव, परिणाम स्वरूप कठिन जीवन है. इस अभाव की स्थिति में बदलाव का सबसे उपयुक्त उपाय भारत आना था. जंगली क़बीले तलवारें भांजते भारत में आते रहे. कुछ भगा दिए गये. कुछ पचा लिए गए।

वैसे तो खंडित भारत भी बहुत बड़ा है मगर अखंड भारत तो बहुत ही विशाल था. इस पर एक केंद्रीय सत्ता कारगर नहीं हो सकती थी मगर राष्ट्र को सबल सैनिक व्यवस्था तो चाहिए थी. इसी से निबटने की प्रक्रिया में भारत ने चक्रवर्ती व्यवस्था निकाली। सब राजा स्वतंत्र रहें किन्तु चक्रवर्ती सम्राट को नाम मात्र का सांकेतिक कर दें और आवश्यकता पड़ने पर उसके झंडे के नीचे अपनी सेना ले कर लड़ने के लिए वचनबद्ध हों. यही चक्रवर्ती व्यवस्था थी।

भारत ने अपनी सीमाओं की सुरक्षा के लिए यह उपाय रखा था. इन लोगों से निबट लेने के यानी परास्त कर भगा देने या भारत में रहने की स्वीकृति दे देने के बाद भी भारत का लगभग 2/5 भाग आज गुलाम है. ऐसा क्यों हुआ ? यही मेरे इस लेख का मूल बिंदु है।

कृपया लेख आगे बढ़ने से पहले कश्मीर के एक चर्चित परिवार की चार पीढ़ी की वंशावली देखिये।

उम्र अब्दुल्लाह पिता फारूक अब्दुल्लाह
फारूक अब्दुल्लाह पिता शेख अब्दुल्लाह
शेख अब्दुल्लाह पिता शेख इब्राहिम
शेख इब्राहिम पिता राघव राम कौल

यहाँ मूल प्रश्न खड़ा होता है कि राघव राम कौल अपनी परंपरा को छोड़ कर दूसरी अपरिचित, घृणा की हद तक नापसंद परम्परा को कैसे अपना सके. सदैव से हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के लिए गौ-मांस खिलाया जाता रहा है. राघव राम कौल को गौ मांस खाने के लिए विवश किया गया तो सारा हिन्दू समाज कहाँ था ? हिन्दू बहुसंख्या के देश में राम-जन्म भूमि, कृष्ण जन्मभूमि, कशी विश्वनाथ का मंदिर ही क्या प्रत्येक बौद्ध मंदिर, जैन मंदिर, सिख गुरूद्वारे ध्वस्त किये गए. सिख समाज के कुछ प्रत्युत्तर को छोड़ कर शेष समाज प्रतिकार क्यों नहीं कर पाया ?

धर्म का नेतृत्व करने वाले लोग क्या कर रहे थे ? पारसीक-असुर, यवन समूहों से निबट लेने वाला समाज अरबों, तुर्कों से क्यों नहीं निबट सका ? भारत के राष्ट्र यानी हिन्दू समाज के पास स्वयं को बचाने की कोई ठीक सी व्यवस्था क्यों नहीं थी ?

मैं इस स्थान पर स्वयं को इस्लाम की प्रशंसा करने से रोक नहीं पा रहा हूँ. इस्लाम के प्रारंभिक नेता मुहम्मद ने अपने समाज के लिए करणीय और अकरणीय तय किये। मुस्लिम समाज के लिए नियम बनाये। नियमों को पालन करवाने वाले संस्थान बनाये। उसके परवर्ती आचार्यों ने हदीसें लिपिबद्ध कीं, सीरा लिखी। परिणामस्वरूप इस्लाम एक मुट्ठीबंद समूह बना. इस्लाम की व्यवस्थाएं नितांत आदिम और बर्बर होते हुए भी संसार भर में फ़ैल गयीं। उसका कहा लम्बे समय तक कानून बना रहा.

हिन्दू समाज में व्यक्तिगत नियम तो हैं मगर पूर्ण समाज के लिए नियमों का अभाव है. अगर कुछ कहीं हो भी तो उन नियमों का पालन कराने वाली न तो व्यवस्था है और न पालन करने पर दंड विधान भी नहीं है. अफगानिस्तान के हिन्दू नष्ट किये गए तो शेष राष्ट्र का ध्यान भी उस ओर नहीं गया. किन्हीं को इस बात से विरोध हो तो वो कृपया अफगानिस्तान की सीमा पर स्थित हिन्दू-कुश का स्मरण करें। हिन्दू-कुश का अर्थ ही हिन्दू- नरसंहार, जहाँ हिन्दू काट डाले गए, है।

 

 

चलिए वो तो बहुत पुरानी बात हो गयी मगर पाकिस्तान-बांग्ला देश के क्रमिक हिन्दू-नरसंहार तो 67 वर्ष से अभी भी चल रहे हैं. हजारों साल पुराने राष्ट्र के लिए तो ये बहुत छोटा काल है. कश्मीर से हिंदू निकले गए तो कोई शंकराचार्य, कोई धर्माचार्य, कोई जैन मुनि, कोई बौद्ध आचार्य, कोई आस्तिक कोई नास्तिक नहीं बोला। किसी धर्माचार्य ने भी समाज को जगाने का प्रयास नहीं किया। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके साथी संगठनों को छोड़ दें तो किसी ने भी आवाज नहीं उठाई। न उन दुखी विस्थापितों की कोई सहायता की. यही वो भयानक कमी है जिसकी पूर्ति किये बिना राष्ट्र के इस भयानक कैंसर का निदान नहीं हो सकता।

हमारे पास मस्जिद में दैनिक नमाज़ तथा शुक्रवार की सामूहिक नमाज में जिसे जमात { समूह } कहते हैं , में अनिवार्य रूप से भाग लेने की व्यवस्था नहीं है. समाज कहीं एक समय अनिवार्य रूप से इकट्ठा हो इसकी कोई अवधारणा ही नहीं है. हमारे उपासना केंद्र निजी उन्नति अथवा मोक्ष की खोज के केंद्र हैं. इन केन्द्रों को ध्वस्त करने के लिए कोई हमलावर आएगा तो क्या होगा ? यहाँ हम इस बात का विचार ही नहीं करते कि उपनिषदों का यह उदघोष ” सारे मार्ग उसी तक जाते हैं” जिस काल और समाज के लिए था, उसमें ”काफिर वाजिबुल क़त्ल” की कोई सोच नहीं थी. वो समाज ” क़त्ताल फी सबीलिल्लाह” -”अल्लाह की राह में क़त्ल करो” सोच भी नहीं सकता था.

कृपया मुस्लिम काल के इतिहासकारों के उनकी अपनी किताबों में वर्णित भारत विजय, मंदिरों के तोड़ने, काफिरों पर अत्याचार के वर्णन पढ़िये। देश में कैसे नरमेध हुए हैं, इनका विवरण पढ़ कर आपके रोंगटे खड़े हो जायेंगे। फिर भी हम तो वो समाज हैं जो ‘अनेकता में एकता’ की घोर त्याज्य सोच को प्रशंसनीय मानता है. ये मेरे देखे ये किसी कोढ़ी का कोढ़ से गलती अपनी उँगलियों को शहर में सबसे छोटी कहना और प्रशंसनीय मानना है.

देश की समस्याओं से तो राजनैतिक नेतृत्व शायद निबट लेगा मगर राष्ट्र पर समस्या आएगी तो कौन उपाय करेगा ? इसी खाई की चिंता न किये जाने का कारण है कि देश का 2/5 भाग पाताल के गर्त में जा गिरा और अब गुलाम है. देश के शेष बचे भाग में इस समस्या से निबटने की तैयारी की योजना बनाना आवश्यक है. अन्यथा तुर्की के अलवी समूह, सीरिया के यज्दी समाज, अफगानिस्तान के हिन्दुओं-सिखों, पाकिस्तान के कलश समाज की तरह भारत में फैले-बसे कैंसर से राष्ट्र की स्वस्थ कोशिकाएं नहीं निबट पाएंगी और राष्ट्र खंड-खंड हो जायेगा। परिणामतः देश अपने 2/5 गुलाम भाग की तरह बर्बरता का शिकार बन जायेगा।

 

 

हमारे पास राजनैतिक नेतृत्व के साथ-साथ सांस्कृतिक-धार्मिक नेतृत्व होना आवश्यक है. संघ और उसके विविध क्षेत्र विहिप, हिन्दू जागरण मंच और आर्य समाज इस खाई को कुछ भरते हैं. उनके नेतृत्व को और फैलना, समय-सापेक्ष होना-दिखना आवश्यक है. यह संगठन इस काम को न्यूनाधिक कर भी रहै हैं. उनके नेतृत्व को सम्पूर्ण हिन्दू समाज की चिंताओं को अपने सर पर लेना होगा। समाज को भी हिन्दू समाज के आचार्यों के नेतृत्व समूह को सबल बनाना होगा। स्वयं भी मुट्ठीबंद समूह बनना होगा। इसके लिए सांस्कृतिक-धार्मिक नेतृत्व का कहा अक्षरशः मानने की उसी मनस्थिति में आना होगा जिसमें कैंसर युक्त कोशिकाएं दिखती हैं।

– तुफैल चतुर्वेदी

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