आज पढ़ रहा था किसी मित्र ने लिखा हमारे घरों की छतों पर तुलसी के पौधे, चिड़ियों के लिए पानी, चिड़ियों को खाने के लिए कुछ रोटी के टुकड़े रखे रहते हैं। पर कुछ लोगों की छत पर तेजाब, पेट्रोल बम, पत्थर और गुलेल रहते हैं, विभिन्न जीवहत्या हेतु मारने काटने के औज़ार भी रहते हैं।
और यही है संस्कृति और विकृत, बर्बर सभ्यताओं के बीच का सबसे बड़ा अंतर!
पर समय आ चुका है कि हिन्दू न सिर्फ़ संगठित हो वल्कि हर व्यक्ति असुरों के स्वागत हेतु भी कुछ सशक्त वस्तुएँ अपने पास रखे और अपने बंधु बाँधवों व पड़ोसियों के साथ मिलकर अपनी रणनीति तैयार रखे। आशय तो आप समझ ही चुके होंगे। आप चाहें अथवा न चाहें इस लड़ाई के मैदान में तो आप हैं ही। तैयारी करके रहेंगे तो गाजर मूली … क्षमा करें भेड़ बकरी सरीखे नहीं कटेंगे, बल्कि सभ्य सनातन समाज की प्रतिरक्षात्मक पंक्ति को सशक्त करेंगे!
अब चुनाव आपको बस यह करना है कि आप कृष्ण के अर्जुन बनकर अन्याय के विरुद्ध खड़े हैं या शिखंडी की भाँति बेमौत मारे जाने वाली नियति का वरण चाहते हैं। यह चुनाव भी आपको करना ही है कि अपनी ”मादाओं’ को स्त्री धन रूपी ढाल में बदलना है, या अपनी सबसे कमजोर बेड़ी बना कर रखना है।
आपको मैं, मेरा, अपना… अपने ऐशोआराम से आगे नहीं बढ़ मिलता। वहीं कुछ लोग अपने शटर गिरा कर एक अफ़वाह मात्र पर ही कंधे से कंधा मिलाकर मारने मरने के लिए निकल पड़ते हैं। आप न तो स्वयं को बचाना जानते हैं न दूसरों को, वो अपने हरेक सैनिक को बचा कर युद्ध का दोष भी आप के ऊपर मढ़ देने में सफल होते हैं। और आप… ?
आप अधिक “शिक्षित” हैं, धनाढ्य व “career-oriented” हैं! संक्षिप्त में कहें तो आप निश्चिंत हैं… सोचते हैं कि इतिहास अपने आप को कभी दोहराता नहीं। वैसे भी इतिहास लिखने पढ़ने पढ़ाने के क्षेत्र में भारतीय सदैव दुर्बल रहे हैं।
शायद इसीलिये हर बार शिकार बनते हैं…. और हर बार जो बच जाते हैं वो बग़लें झांक रहे होते हैं यह सोच कर कि इस बार तो पानी सर के ऊपर से निकल ही गया … शायद अब तो भगवान कृष्ण आपकी लड़ाई स्वयं लड़ने आ ही जायेंगे!!!
हो सकता है… ऐसा अवश्य सम्भव है। पर क्या वाक़ई आपकी भक्ति इतनी उच्च श्रेणी की रही है? जीवनपर्यंत आप कितना समझे हैं सत्य सनातन धर्म को? जीवन क्या है इसे जानने का भी कभी सच्चा प्रयास किया है, जीना तो छोड़िए। कभी अपना इतिहास, अपने धर्म शास्त्र देखे भी हैं या उनको mythology अर्थात मिथ्या बताने वालों का आँख मूँद कर भरोसा करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली? क्या आप पैसा कमा कर सुखों का भोग करके पशुओं सरीखे समाप्त होने हेतु ही बने हैं??
जिन देवों की आरती उतार उतार कर पूरा जीवन काट लिया क्या कभी उनके अपने समीपस्थ होने की धारणा रखी, उनके अस्तित्व पर भी अटूट विश्वास किया? या भगवान आपके लिये किसी बहुत दूर के लोक में बसने वाले कोई alien जीव मात्र है???
उनके हाथों में क्या है, क्यों है, किसके लिये है इस पर कभी मनन किया? क्या जय भवानी और हर हर महादेव जैसे शब्दों को बोलते समय कभी रणचण्डी और महादेव को कातर भाव से पुकारा कि वे आपको आवश्यकता के अनुरूप सामर्थ्य व शक्ति दें और ये उद्घोष ही आपको विजयी बनाये?
आख़िर कब जागेगा आपका पौरुष? कब तक “दूसरों” पर दोषारोपण करके अपनी असली ज़िम्मेदारी अर्थात धर्म व राष्ट्र की सुरक्षा से मुँह मोड़कर बस पलायन करते रहेंगे? और कहाँ जायेंगे?
अपने आने वाले कल के लिये क्या छोड़कर जायेंगे, कभी सोचा है? इसके बाद आत्म हत्या के लिये न अरब सागर और न बंगाल की खाड़ी शेष होगी।
है समर शेष, अब तो हे हिन्दू गाण्डीव सजा… है रणभेरी बजी हुई, है रणचण्डी सजी हुई… रक्तबीज हैं पुकारते, … ये रावण हैं ललकारते…
हे पार्थ, अब तो अपनी तंद्रा तोड़, अब तू बस गाण्डीव उठा।
जय भवानी, हर हर महादेव। भारत माता की जय।।
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– नीरज सक्सेना