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हिन्दू समाज का पल पल होता बलात्कार

कई लोगों ने बलात्कार की घटनाओं के प्रतिकार के लिए कई सुझाव दिए। पब्लिकली फाँसी देने से लेकर लड़कियों को मार्शल आर्ट्स सिखाने तक के सुझाव आये। पर सबमें एक बात कॉमन है जो हिन्दू मानस की मूलभूत कमजोरी को रेखांकित करती है। सारे समाधान या तो संवैधानिक प्रावधानों के भरोसे हैं या फिर व्यक्तिगत प्रतिकार की क्षमता विकसित करने की बात करते हैं।

जबकि हमारे ऊपर जो हमले हो रहे हैं वे न तो एक व्यक्ति के कृत्य हैं, ना ही उन्हें किसी संवैधानिक फ्रेमवर्क का भरोसा है। ये एक संगठित समाज की सुनियोजित हरकतें हैं, जिन्हें पूरे समाज का संरक्षण और प्रोत्साहन है। और हमारी इतनी भी क्षमता नहीं है कि हम इन आक्रमणों को एक आक्रमण की तरह देख सकें।

जैसे कि हमने अपने देश पर होने वाले असंख्य हमलों को सिर्फ अलग अलग घटनाओं की तरह देखा था, उनके पीछे का सुनियोजित आक्रामक विचार नहीं देखा था. हमारी राजनीतिक सांस्कृतिक दासता हमारे लिए एक सामूहिक अपमान का विषय नहीं थी. इतिहास को देखने से इनकार करने की हमारी क्षमता अद्भुत रही है।

आज भी हम अपने ऊपर हो रहे इस आक्रमण का कोई सामाजिक सामूहिक प्रतिकार करने में अक्षम हैं। हम संरक्षण माँगते हैं संविधान से…. और संविधान हमें सामूहिक रूप से प्रताड़ित और अरक्षित मानने के लिए डिज़ाइन नहीं हुआ है। अगर एक लाख हिन्दू महिलाओं के बलात्कार होंगे तो वे अलग अलग एक लाख घटनाएँ गिनी जाएंगी। दस लाख हिंदुओं की हत्याएँ होगी तब भी उन्हें दस लाख अलग अलग अपराध गिना जाएगा।

वहीं अगर किसी भी एक मुस्लिम को ख़रोंच आ जायेगी तो पूरे समुदाय के विरुद्ध जेनोसाइड और प्रोग्रोम जैसे नैरेटिव खड़े कर दिए जाएँगे। पूरा विश्व समुदाय वैसे ही रियेक्ट करेगा। क्योंकि पूरी संवाद की भाषा ही उन्हें विक्टिम के विशेषाधिकार देने के लिए गढ़ी गई है। उनका अपना माइंडसेट भी हर ऐसी घटना को एक कलेक्टिव थ्रेट की तरह देखने के लिए प्रोग्राम्ड है।

वहीं दूसरी तरफ हिन्दू, हमेशा की तरह अकेला है. हम एक कम्युनिटी नहीं, 1 अरब अलग अलग व्यक्ति हैं। यही हमारी संवैधानिक परिभाषा है, यही विश्व का हमारे प्रति नज़रिया है और यही दुर्भाग्य से हमारी मनस्थिति और हमारा सामूहिक बर्ताव है। हम संविधान पर निर्भर हैं। पर संविधान, at best, अपनी सरकार के हाथों में, नपुंसक और निष्क्रिय है….और at worst, शत्रु पक्ष की सत्ता होने पर, हमारा शत्रु है।

या फिर हम व्यक्तिगत प्रतिरोध पर निर्भर हैं…. सतर्क रहो, खतरनाक इलाकों से ना गुजरो, हथियार रखो, मार्शल आर्ट्स सीखो…यानि जो करोगे, वह खुद करो… समाज में सामूहिक प्रतिकार की शक्ति नहीं है। इसे विकसित न होने दिया जाए ऐसा नैरेटिव बनाने के पूरे प्रयास हैं। आप फिर अकेले हो, जैसे आज तक हमेशा रहे हो।

आप अकेले अपनी सुरक्षा नहीं कर सकते। अगर आपके पास AK 47 हो तो भी नहीं। क्योंकि शत्रु आपकी मैगज़ीन के खाली होने की प्रतीक्षा करने को तैयार है। अगर आपके मन में सचमुच क्षोभ है तो इसे एक आदमी का क्षोभ ना बनाएं, ना ही इसे एक व्यक्ति पर खर्च करें। इसे एक सामूहिक संकट की तरह ही देखें और सामूहिक प्रतिकार के हल सोचें। सामूहिकता की भावना को अपनी बौद्धिक आदत का भाग बनाएँ। क्योंकि इतिहास बस अपने आपको दुहरा रहा है। शत्रु संगठित है और हम अकेले।

– राजीव मिश्रा

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