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भारतवर्ष के वीर सपूतों का आह्वान, बढ़े चलो बढ़े चलो

भारत जब दुनिया का सबसे समृद्ध देश था तो सैकड़ों साल तक इसके अलग-अलग हिस्से गुलाम रहे लेकिन यही देश जब कंगाल हो गया तो आज़ाद हो गया। मतलब युद्ध जीतने के लिए धन से बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है ‘मन’। मन बोले तो भावी अस्थायी युद्ध में स्थायी शांति और मुक्ति के बीज देखने की दृष्टि और हिम्मत।

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अगर ऐसा न होता तो—

■ वियतनाम जैसे देश से सुपरपावर अमेरिका कैसे परास्त होता?

■ सुपरपावर रूस लहूलुहान होकर अफगानिस्तान से

कैसे भागता?

■ नेपाल से चीन कैसे परास्त होता?

■ भारत से बार-बार हारने के बावजूद पाकिस्तान हमेशा हमलावर कैसे बना रहता?

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लेकिन लोकतंत्र में यह बात सेना एवं सेनानायक के साथ-साथ राजनैतिक नेतृत्व के ‘मन’ पर भी निर्भर करती है। ऐसा नहीं होता तो—

■ द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान दुनियाभर में अपना परचम लहरानेवाली अजेय सैन्यशक्ति से संपन्न होने के बावजूद जवाहरलाल नेहरू का भारत युद्ध हारने के लिए बदनाम चीन से 1962 में कैसे हार जाता?

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सौभाग्य से आज भारत के पास सबकुछ है: धन, मन और सैन्यशक्ति। 1962 और आज में एक ही अंतर है और वह है कुशल, देशभक्त और हिम्मती राजनैतिक नेतृत्व। चीन को सिर्फ यह संदेश चला जाए कि —

■ भारत तबतक लड़ता रहेगा जबतक वह जीत न जाए तो वह (चीन) भारत की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखेगा।

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चीन के साथ हुई झड़प भारत के लिए एक स्वर्ण अवसर लेकर आई है जिसे उपयुक्त अवसर पाकर युद्ध में बदल देना भारत के लिए भाग्य के द्वार खोल देगा। यह भारत को इसके अंदर और बाहर दोनों ही प्रकार के दुश्मनों पर विजय दिलाने में सफल होगा। इसके अंदर पल रहे तीनों दुश्मन मुकम्मल तौर पर धराशायी होंगे —

■ ‘मिनी पाकिस्तान’, ‘मिनी चीन’ और ‘मिनी वैटिकन’ ।

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जाहिर है देश में सृजनात्मक ध्वंस का एक ऐसा दौर चलेगा जो पिछ्ले 5000 सालों से नहीं हुआ है और जिसकी इस देश को हजार सालों से उत्कट प्रतीक्षा है। भारत ने आक्रामक सुरक्षा की नीति पर कदम रखा नहीं कि चीन दोस्ती की ओर तेजी से बढ़ेगा। ऐसा इसलिए कि युद्ध हुआ तो इसमें उसका घाटा ही घाटा है: कोरोनोत्तर काल में नम्बर वन सुपरपावर के रूप में स्वीकृत होने की उसकी महत्वाकांक्षा को पलीता लग जाएगा जब भारत रणभूमि में उसको पीछे धकेल देगा।

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इसका सबसे बड़ा प्रमाण है भारत के आक्रामक रुख की झलक पाते ही चीन का पाकिस्तान की भाषा बोलने लग जाना। इतना ही नहीं, चीन के दलाल (काँग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टियाँ और टुकड़खोर बुद्धिजीवी) भी अब शांति के राग अलापने लगे हैं। उन्हें भारत ही हमलावर लगने लगा है!

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लब्बोलुआब यह है कि भारत को अगर लंबे समय तक अपनी सीमाओं के साथ-साथ आंतरिक शांति भी चाहिए तो चीन के विरुद्ध उसे दो कदम आगे बढ़कर आर-पार की लड़ाई लड़ने में एकदम नहीं झिझकना चाहिए —

■ जिस लोकतांत्रिक देश की शांतिप्रिय जनता युद्ध को उत्सव में बदलने के लिए मचल रही हो, उस देश के नेतृत्व को किस बात की झिझक!

■ देश के चप्पे-चप्पे से अब ‘हर हर महादेव’ का शंखनाद होगा क्योंकि चीन के कब्ज़े से महादेव के मानसरोवर को भी मुक्त कराना है।

– चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह

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