अंग्रेज़ अधिकारी गहरे चिंतित हैं. दो अमरीकी पत्रकारों के सर काटने वाले नक़ाब पहने हत्यारों की बातचीत की शैली ब्रिटिश इंग्लिश से मेल खाती है. उन दोनों की लगभग पहचान कर ली गयी है और वो ब्रिटिश नागरिक पाये गये हैं. घोषित रूप से इंग्लैंड से सैकड़ों मुसलमान पहले अफ़ग़ानिस्तान और अब सीरिया, ईराक़ की आतंकी लड़ाई में भाग लेने जा चुके हैं. सूचना ये भी है कि बहुत सी मुसलमान लड़कियां मानव-बम बनाने के लिए तैयार हैं. इससे अंग्रेज़ी राज्य-व्यवस्था बहुत चिंतित है. वहां की आतंरिक सुरक्षा एजेंसी एम-17 के लगभग सारे लोग, सारा बजट इस्लामी आतंकवाद की निगरानी पर तैनात है.
आज जब मैं ये लेख लिख रहा हूँ तो बाहर भीनी-भीनी फुहार पड़ रही है मगर इंग्लैंड के ठन्डे मौसम में भी ब्रिटिश राज्य-व्यवस्था के पसीने छूट रहे हैं. आज से 30 साल पहले ब्रिटेन में इस्लामी आतंकवाद, ब्रिटेन के लिए इस्लामी आतंकवाद या उग्रवाद चिंता तो क्या चर्चा का भी विषय नहीं था. इंग्लैंड में 60-70 साल पहले विभिन्न देशों से हिन्दू, यहूदी, पारसी और मुसलमान सभी मत-संप्रदाय, मज़हब के लोग आ कर बसे हैं. विभिन्न मत-संप्रदाय, मज़हब को अंग्रेजी क़ानून अपने-अपने विश्वास के अनुरूप जीवनयापन की सब प्रकार से छूट देते हैं. इन्हीं में मुसलमान भी थे. इंग्लैंड के उपनगरों में, छोटी-छोटी बस्तियों में इन्होने घर लिये, बनाये. हलाल मांस की दुकानें खोलीं. पतली गलियों में मदरसे खोले. कबाब भून कर बेचने के लिए अंगीठियां रखीं. जिन-जिन दुकानों पर सुअर का मांस मिलता था उनसे दूरी बरती.
अंग्रेज राज्य-व्यवस्था के लिए वहां की सामान्य जीवन शैली से अलग-थलग ये जीवन कोई विषय था ही नहीं. वही ऐतिहासिक भूल जो हमने/भारत ने की वही अंग्रेज/इंग्लैंड ने की. बाहर से आया एक समाज क्या कर रहा है ? क्या खा-पी रहा है ? क्या सोच रहा है ? उसके स्कूल अलग क्यों हैं ? वो मूल निवासियों से नौकरी या व्यापार के अलावा मिलता-जुलता क्यों नहीं ? उसने अपनी दुनिया हमारे संसार में अलग क्यों बसा रक्खी है ? ये गहरे कौतूहल और चर्चा के विषय होने चाहिए थे मगर इन पर ध्यान नहीं दिया गया. एक सामान्य ब्रिटिश नागरिक के जो अधिकार थे वही उनके माने गये. उन्हें उसी तरह क़ानून का पालन करने वाला माना गया जैसी एक अंग्रेज़ से इंग्लैंड में आशा होती है.
उनमें किसी तरह की बेचैनी पायी भी गयी तो वहां भी भारत के सैक्युलरिज़्म की तरह मल्टी-कल्टी की खोज कर ली गयी. जैसे यहाँ सैक्युलरिज़्म की रक्षा के लिए विदेशी आक्रमणकारियों के नाम पर बाबर रोड, हुमायूँ रोड, अकबर रोड, शाहजहाँ रोड, औरंगजेब रोड होती हैं, भयानक दुष्ट टीपू सुल्तान का झूठा सर्व-धर्मसमभावी जीवन चरित्र पढ़ाया जाता है वैसे ही वहां भी मुसलमानों की तुष्टि के लिए काम किये गए. ब्रिटिश स्कूलों में इस्लामी रीति-रिवाजों { नमाज़ } के लिए स्थान बनाये गए, रोज़ों में सहरी की व्यवस्था की गयी. हलाल मांस का भोजन दिया गया. लड़कियों-लड़कों के लिए अलग शिक्षा की व्यवस्था की गयी. यहाँ तक कि स्कूलों, कॉलिजों में क़ुरआन, हदीस, फ़िक़ा की शिक्षा की व्यवस्था की गयी. जिस अध्यापक, राजनेता, पत्रकार, लेखक ने इसका विरोध किया उसे, जैसे भारत में ऐसी बात करने वाले को सांप्रदायिक कह कर लांछित किया जाता है, रेसिस्ट कह कर लांछित किया गया.
ये सब करने के बाद भी मुस्लिम समाज में बेचैनी प्रखर रूप से दिखाई देने लगी. बहुत से मुसलमान लड़के जो इंग्लैंड में पैदा हुए थे, पले-बढे थे, सामान्य जींस-शर्ट, कोट-पैंट की की जगह ढीले-ढाले कपडे पहनते दिखाई देने लगे. सर पर विशेष प्रकार की टोपियां नज़र आने लगीं. लड़कियां हिजाब, बुरक़ा पहने दिखाई देने लगीं. उनकी पहचान अलग मालूम पड़ने लगी. फिर 1989 में मल्टी-कल्टी के ताबूत में बहुत गहरी कील ठुकी. बहुत प्रतिष्ठित और विद्वान लेखक सलमान रुशदी साहब की किताब ‘द सेटेनिक वर्सेस’ प्रकाशित हुई. ईरान के तानाशाह आयतुल्लाह खुमैनी ने उस किताब को बिना पढ़े-देखे उसके लेखक सलमान रुशदी साहब को मार डालने का फ़तवा जारी किया.
अंग्रेज अधिकारी भौंचक्के रह गए कि इंग्लैंड में पैदा हुए, पले-बढे ब्रिटिश मुसलमानों ने सलमान रुशदी साहब को मार डालने का समर्थन किया. इंग्लैंड की हर मस्जिद, हर इस्लामी संस्थान में सलमान रुशदी साहब को भद्दी बातें कही गयीं. बड़ी-बड़ी विषैली रैलियां हुईं. मगर उसको सुन कर एक भी श्रोता ने विरोध नहीं किया. ब्रिटेन की सामान्य जीवन शैली, सहज जीवन-विश्वास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में एक भी इंग्लिश मुसलमान खड़ा नहीं हुआ.
यही इंग्लिश क़ानून इन्हें अपनी बात कहने की स्वतंत्रता दे रहे थे मगर वो इस ‘अपनी बात कहने की स्वतंत्रता’ का लाभ सलमान रुशदी साहब को देने को तैयार नहीं हुए. जबकि इंग्लैंड में रह कर इंग्लैंड के ही सम्मानित नागरिक सर सलमान रुशदी साहब की आलोचना का अधिकार उन्हें इंग्लैंड के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कानून ही मिला था. इस फ़तवे पर आयतुल्लाह खुमैनी के साथ खड़े ब्रिटिश मुसलमानों की भाव-भंगिमा से समझ में आ जाना चाहिए थे कि भारत के सेक्युलरिज़्म की तरह मल्टी-कल्टी भी एक पक्षीय रास्ता है. यही वो बिंदु है जिसे समझे, आत्मसात किये बिना आतंकवाद का हल नहीं निकला जा सकता. कोई सफल योजना नहीं बनायी जा सकती.
इसी ब्रिटेन के शासक प्रिंस फिलिप स्वयं मस्जिदों में जा कर मुसलमानों से घुलते-मिलते रहे हैं. उन्हें दुलारते-पुचकारते रहे हैं. स्वयं को ब्रिटिश मुसलमानों का संरक्षक बताते रहे हैं. ये उदारता इतनी अधिक थी कि ब्रिटेन की गद्दी के उत्तराधिकारी प्रिन्स चार्ल्स की पत्नी डायना के अनेक प्रेमियों में से अंतिम प्रेमी मिस्र मूल का अरबपति फ़हद ढोढ़ी था. कुछ अपुष्ट सूत्रों के समय डायना जब फ़हद के साथ फ़्रांस में कार दुर्घटना में मारी गयी, उस समय वो फ़हद से गर्भवती थी. ब्रिटिश राज परिवार का हिस्सा रहीं लेडी माउंटबेटेन और उनके अंतरंग मित्र, भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जी की आत्मा ये जान कितनी प्रसन्न होगी कि ब्रिटेन की गद्दी का तीसरा आधा उत्तराधिकारी और वर्त्तमान के घोषित प्रिन्स विलियम का आधा भाई अरबी मूल से आने वाला था.
इसकी तुलना के लिए ध्यान दीजिये कि किसी मुस्लिम अरब देश में कोई मूर्ति, बाइबिल या कोई अन्य धार्मिक पुस्तक, सलीब ले कर नहीं जाई जा सकती. ऐसा कुछ भी किसी के पास पाये जाने पर भयानक मृत्यु-दंड का प्रावधान है. मक्का, मदीना में किसी अमुस्लिम का जाना तो दूर उसके आकाश से कोई विमान भी नहीं गुज़ारा जा सकता कि उसमें अमुस्लिम हो सकते हैं.
एक ईसाई देश ब्रिटेन में वहां के मुसलमान नागरिक ईसाई नागरिकों की तरह सारे अधिकारों का उपभोग करते रहे मगर उन्हीं अधिकारों का उपयोग किसी अन्य ब्रिटिश नागरिक के करने पर वो उसके खून के प्यासे हो गए. ब्रिटिश पुलिस को बरसों सलमान रुशदी साहब को अज्ञातवास में रखना पड़ा. जिस समाज ने उन्हें अभिव्यक्ति की अबाध स्वतंत्रता दी वो उसी को आँखें दिखाने लगे. ये बच्चे वहीँ पैदा हुए थे. उनके माता-पिता या दादा-दादी बाहर से आ कर बसे थे. उनके पूर्वज उस तरह के कट्टर भी नहीं थे तो फिर इन लोगों में ये भयानक परिवर्तन कैसे आया ?
1990 के बाद पाकिस्तान, सीरिया, ईराक़ जैसे कई देशों में धार्मिक उत्पीड़न को आधार बना कर बहुत से मुल्ला भी इंग्लैंड में आ कर बस गए. उन्होंने उन बच्चों को इस्लाम की वास्तविकता बताई कि इस्लाम में राष्ट्रवाद कुफ्र { पाप } है. इस्लाम किसी देश की सीमा को नहीं मानता. इस्लाम एक सम्पूर्ण जीवन-प्रणाली है. इस्लाम के अनुसार जीवन जीने वाले सारे लोग बिरादरे-इस्लाम { इस्लामी भाई } हैं. इनके अतिरिक्त सभी लोग काफ़िर हैं और काफ़िर वाजिबुल-क़त्ल { मार डालने योग्य } होते हैं.
ऐसे विश्वास/अन्धविश्वास चैक किये जाने चाहिए थे, इनको चुनौती दी जानी चाहिए थी, रोका जाना चाहिए था. ये सब काम वो मुल्ला कोई चोरी-छुपे नहीं कर रहे थे. मस्जिदों में सामान्य साप्ताहिक खुतबे पढ़े जाते थे. उन्हीं में ये बातें सार्वजनिक रूप से कही जाती थीं. वहां के मुल्लाओं में सबसे अधिक विषैले उमर बकरी, अबू हमज़ा जैसे लोग ब्रिटिश मुसलमानों को भड़कते रहे और अंततोगत्वा ब्रिटेन योरोप का इस्लामी आतंकवाद में सर्वाधिक योगदान देने वाला देश बना. ब्रिटेन से ही सबसे अधिक जिहादी निकले.
2001 में ब्रिटेन में भयानक दंगे भड़के. जिन्हें वहां की प्रेस, शासन व्यवस्था ने एशियाई दंगा कहा. इन दंगाइयों में कोई भी हिन्दू, ईसाई, पारसी, यहूदी नहीं था मगर हमारे विचित्र सेक्युलरिज़्म जैसी ही मल्टी-कल्टी के कारण ऐसा कोई भी सच नहीं बोला गया जिससे दंगाइयों या उस मानसिकता को कष्ट पहुंचे. अमरीका पर हुए 11 सितम्बर के दंगे के बाद लन्दन में उन पायलटों की फ़ोटो ले कर जलूस निकाले गए. उन सनकी हत्यारों की आत्मा की शांति के लिए मस्जिदों में पूर्व घोषणा कर के नमाज़ें अदा की गयीं और लन्दन की पुलिस इस विचित्र मानवाधिकार की रक्षा करती रही. ये बात कि ऐसे सारे दंगे इस्लाम के कारण हैं, उसके मुल्ला ऐसी कार्यवाहियां करवा रहे हैं और ये सारे आह्वान इस्लामी ग्रंथों के कारण हैं कहने में सबको सांप सूंघ गया.
आश्चर्जनक रूप से ब्रिटेन वो देश है जिसके प्रोटेस्टेंट राजाओं के नेतृत्व में 300 साल तक योरोप ने इस्लाम से युद्ध किया है. यरूशलम के लिए कभी इसकी कभी उसकी हार-जीत होती रही मगर इस ईमान और कुफ्र की जड़, क़ुरआन की मान्यता पर कभी सवाल नहीं खड़ा किया. वही चूक अब भी हो रही है. जब तक इस बिंदु पर कार्य नहीं होगा ये समस्या नहीं सुलझ सकती.
मुझे यहाँ अपने कॉलिज के दिनों की एक घटना याद आती है. मेरे कालिज के लगभग 1200 छात्र-छात्राओं में केवल 173 मुस्लिम छात्र थे. हमारे यहाँ फ़रहत हुसैन नाम का एक बिलकुल लड़का सा अध्यापक आया. वो जमाते-इस्लामी का सक्रिय सदस्य था और उसे उस काल के किसी सामान्य हिन्दू अध्यापक की तरह सरकारी नौकरी में होने पर, संघ के सदस्य न होने जैसी किसी बात की बिलकुल परवाह नहीं थी. उसने आने के अगले साल ही अध्यापक होने के बावजूद सारे मुस्लिम लड़कों को बुलाने-मिलने, दोस्ती करने, बिरादराने-इस्लाम का दर्शन समझाने की लगातार कोशिशें कीं. उन 173 लोगों में हमारे दसियों दोस्त भी थे, जो किसी भी पैमाने से उदार थे.
फ़रहत हुसैन ने संभवतः बुनियाद अली नाम के एक अचर्चित लड़के को चुनाव खड़ा कर दिया. उसका हारना तय था और वो ठीक 173 वोट ले कर हार गया. हो सकता है आपकी दृष्टि में ये विशेष बात न हो मगर फ़रहत हुसैन 173 लोगों के दिल में ये बात कि तुम 173 नहीं हो इस्लामिक उम्मा का अंग हो, बिरादरे-इस्लाम हो, बैठाने में सफल हो गया. बाक़ी लोग काफ़िर हैं ये बात भी सबके दिमाग़ में ठीक-ठाक बैठ गयी.
उन्हीं में से कुछ छात्र बाद में इस्लामिक मूवमेंट के सदस्य बने. सफ़दर नागौरी के साथी बने, जेलें काटीं. उनमें से कुछ के बच्चे अब इस्लामी सन्देश फ़ैलाने में फ़ेस बुक पर लगे रहते हैं. विष-बेल को कुचलने में देर करने का परिणाम आज नहीं तो कल आना ही होता है. इन्हीं अंग्रेज़ों ने हमारे गले में कश्मीर की हड्डी अटकाई थी. हम तो अगले कुछ वर्ष में इस समस्या से पार जा ही लेंगे मगर अंग्रेजों की धूर्त आँखें बहुत धीरे-धीरे खुल रही हैं.
– तुफ़ैल चतुर्वेदी