‘अभिज्ञान शाकुंतलम् ‘ के भरत-वाक्य के माध्यम से कालिदास यह सन्देश (चेतावनी) देते हैं –
‘प्रकृति हिताय पार्थिवः
सरस्वती श्रुतिमहती महीयतां।’
अर्थात् सभी राजा गण (प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री इत्यादि) प्रकृति की रक्षा के तत्पर हों; और कवियों की वाणी का सम्मान हो।
जो राष्ट्र अपनी गायों, अपने विश्वकवि, वैज्ञानिकों, जवानों, किसानों की अवहेलना करता है वह दुर्भिक्ष, मरण और भय से ग्रस्त रहता है।
भूकम्प के कारण टेहरी बांध टूट सकता है ऐसा भूगर्भ सर्वेक्षण में कहा गया परन्तु उस रिपोर्ट को दबा दिया गया। जहाँ टेहरी डैम है वहां के पर्वत में मिट्टी अधिक है जिससे वे पोले हो रहे हैं तथा यह भूकंप के जोन चार मे स्थित है अतः वह कम झटके में भी टूट सकता है। और जब ये टूटेगा तो हरिद्वार का अस्तित्व तो समाप्त हो ही जाएगा, प्रयाग में भी 30 फुट तक की वृद्धि हो सकती है। यह बात दशकों पहले एक बड़े भूगर्भशास्त्री ने कही थी। दिल्ली, मेरठ, गढमुक्तेश्वर वगैरह कुछ नही बचना। और कुछ नहीं तो दुश्मन चीन को इस ticking time bomb पर एक मिसाएल भर दागना है और उत्तर भारत के अधिकांश हिस्से इसकी बाढ़ की जद में आ जाएँगे।
अस्सी व नब्बे के दशक में सभी नदी वैज्ञानिकों ने बार बार कहा था – नब्बे अंश ढलान पर, भसकने वाली भूमि पर बना यह बांध टाइम बम है।मारशेलकर, बी के चौधरी, बी डी त्रिपाठी, आर एस दुबे से लेकर संतों, कवियों, संस्कृतिविदों ने भी इसका विरोध किया था।
इस बांध पर दो भूगर्म वैज्ञानिक दलो के भिन्न विचार थे, आईआईएससी बैंगलोर और रूडकी विश्वविद्यालय।सुन्दरलाल बहुगुणा इसके धुर विरोधी थे। पर भूकम्प निरोधी सिविल स्ट्रक्चर प्रो0 आनंदस्वरूप अग्रवाल ने सुझाव दिया और उसे ही मानकर सरकार आगे बढ़ गयी।
विचार नेहरू के समय प्रारम्भ हुआ पर यह बांध इन्दिरा गांधी की देन है।रूस ने इसका खाका तैयार किया, राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल में फाउंडेशन रखा और अटल बिहारी वाजपेयी ने 2000 के कुम्भ के बाद उसे पूर्ण करा कर अंतिम रूप से प्रवाह बन्द करा दिया था। अशोक सिंघल तक गंगा की इस अविरलता को बचाने में विफल हुए थे। वाजपेयी इसे बाँधने के लिए कटिबद्ध थे। उपनिवेशवादियों ने डॉलर झोंक रखा था। उसकी लूट मची हुई थी।
अंततोगत्वा कॉंट्रैक्टरों ने निचले व माध्यम स्तर तक खूब रिश्वत खिलायी और गुणवत्ता के माणकों में बदलाव करवा के, सुरक्षा को ताक पर रख कर बांध पूरा हुआ। ऑडिट रिपोर्ट तक मनिप्युलेट करवाईं गयीं।
छोटे छोटे बाँधों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर बांध विनाशकारी ही हैं, नदी और उपजाऊ मृदा को आगे बढ़ने से रोकते हैं। अमेरिका ने तो बहुत से बांधों को खत्म भी कर दिया है पर भारत नदियों को पूर्व रूप में वापस लाने के स्थान पर बड़ी नदियों को और पतला कर रहा है और बांध बना कर नदियों के वेग को रोका जा रहा है जिसके दुष्परिणाम होंगे।
विकास के नाम पर प्रकृति के अत्यधिक दोहन के परिणाम भारतीयों को भुगतने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। वर्ष २०१३ में जो बिजली परियोजना के नाम पर धारी देवी माता का सिद्ध मंदिर अपने मूल स्थान से हटाया गया था उसके तुरंत बाद ही इस तबाही का प्रारम्भ केदारनाथ से प्रारम्भ हुआ था और ये क्रम टेहरी के साथ ही बंद होगा ऐसा कई संतों का मानना है।
‘अस्त्युतरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः………….पृथिव्या इव मानदण्डः।। (कालिदास कृत)
ऐसी ही स्थिति रही तो दोहन का मानदण्ड बिगड़ने पर यह देवतात्मा हिमालय, जो समूची पृथ्वी की मूल ग्रंथि है, बिखरने पर सर्वनाश हो जाने की सम्भावना है।
– साभार कामेश्वर उपाध्याय जी