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किसानों को बर्बादी की ओर धकेलता समाजवाद

कल कुछ सुझाव देखने को मिले…

एक सुझाव था कि फसल का न्यूनतम मूल्य फिक्स कर दिया जाए जिससे किसानों का शोषण न हो। साथ ही एक अधिकतम मूल्य फिक्स कर दिया जाए जिससे कि उपभोक्ता के हितों की रक्षा हो सके…

ये सारे विचार अर्थशास्त्र के प्रति अनभिज्ञता से आते हैं। इकॉनमी एक सजीव चीज है, उसकी अपनी फिजियोलॉजी है. आपके बनाये नियम अपने आप लागू नहीं हो जाते, इकॉनमी की अपने प्रतिक्रिया होती है, और अपने परिणाम होते हैं।

मूल्य निर्धारण नियम बनाने से नहीं हो जाता, वह माँग और पूर्ति के अंतर्सम्बन्ध से निर्धारित होता है। एक मूल्य विशेष पर किसी भी वस्तु की एक नियत माँग होती है, और एक नियत आपूर्ति होती है. माँग बढ़ने से मूल्य बढ़ता है और आपूर्ति बढ़ने से मूल्य घटता है। साथ ही मूल्य बढ़ने से आप अपनी खपत में कमी कर देते हैं, और विक्रेता अपनी आपूर्ति बढ़ाने के प्रयास में जुट जाता है। मूल्य निर्धारण एक डायनामिक प्रोसेस है, आपको उसका आखिरी परिणाम मात्र दिखाई देता है. जैसे आप देखते हैं कि चक्का घूमता है तो गाड़ी चलती है। अब अगर किसी को ऑटोमोबाइल का बेसिक ज्ञान भी नहीं हो और वह इंजन के बारे में नहीं जानता तो वह यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि अगर गाड़ी में दो चक्के और लगा दिए जाएँ तो गाड़ी अधिक तेज चलने लगेगी।

फिर भी कृत्रिम मूल्य निर्धारण एक लोकप्रिय राजनीतिक निर्णय होता है। आम जनता की जानकारी के अभाव में नेता इस निर्णय का तात्कालिक राजनीतिक लाभ ले लेते हैं, पर इसके परिणाम अंत में भुगतने ही होते हैं।

अगर किसी भी चीज का न्यूनतम मूल्य उसके बाजार भाव से ऊपर तय कर दिया जाए तो क्या होगा? उस मूल्य पर उसकी जितनी माँग होगी, वह उतनी ही खरीदी जाएगी, बाकी पड़ा रहेगा. बाजार में सरप्लस हो जाएगा और उत्पादक का नुकसान होगा। अगर उसकी सरकारी खरीद जबरदस्ती कर ली जाए तो अनाज सरकारी गोदामों में सड़ता रहेगा जैसा अक्सर होता है।

वैसे ही अगर किसी भी चीज का अधिकतम मूल्य उसके बाजार भाव से नीचे तय कर दिया जाए तो उत्पादक को उसकी उतनी ही मात्रा सप्लाई करेगा जितनी वह उस मूल्य पर करता, जबकि माँग अधिक हो जाएगी। तो बाजार में उसकी कमी हो जाएगी और कालाबाज़ारी शुरू हो जाएगी… और अंत में उपभोक्ता को वह चीज ब्लैक में उस रेट से अधिक मूल्य पर मिलेगी, जितनी वह अन्यथा देता।

ये फिजिक्स के नियमों की तरह हैं. इनमें अगर मगर नहीं होता। जितनी बार ये निर्णय लिए गए हैं, इनके यही परिणाम आये हैं। फिर भी तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए ये निर्णय लिए जाते रहे हैं और लिए जाते रहेंगे।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद न्यूयॉर्क में घरों का अधिकतम किराया तय कर दिया गया। नतीजा यह हुआ कि घरों की कमी हो गई, और लाखों लोग बेघर हो गए। आज भी न्यूयॉर्क में रेंट कंट्रोल लागू है और आज भी न्यूयॉर्क में हाउसिंग क्राइसिस है। यह इसलिए हुआ कि लोगों ने अपने घर किराए पर देने बन्द कर दिए, और बिल्डर्स ने उन इलाकों में नए घर बनाने बन्द कर दिए जहाँ रेंट कंट्रोल लागू था। यानि अधिकतम मूल्य फिक्स कर दिया गया तो सप्लाई घट गई।

वहीं, न्यूनतम मजदूरी तय कर देने से बेरोजगारी बढ़ती है। यह एक स्थापित तथ्य है. फिर भी सरकारें हमेशा न्यूनतम मजदूरी तय करती ही हैं।

इंग्लैंड में जहां मैं काम करता हूँ हमेशा डॉक्टरों की कमी रहती है। ओपीडी में महीनों महीनों की वेटिंग लिस्ट रहती है, इमरजेंसी में भी लोग घंटों घंटों इंतजार करते हैं।यह पूरी तरह से एक मार्केट फेनोमेना है. स्वास्थ्य सुविधाएँ मुफ्त होने से लोग छोटी छोटी बातों के लिए हॉस्पिटल पहुँच जाते हैं। बच्चा खेलते हुए सोफे से कार्पेट्स पर गिरा, माँ बाप हस्पताल पहुँच जाते हैं और सीटी स्कैन की माँग करते हैं। ऐसे हज़ारों और भी केस आते हैं जिनके लिए आप हॉस्पिटल सामान्यतः नहीं जाते अगर 5 पाउंड भी देने होते।

उधर उस कमी को पूरा करने के लिए हॉस्पिटल एक्सट्रा डॉक्टर्स घंटे के रेट से हायर करती है। उसे लोकम कहते हैं। तो हस्पतालों का खर्चा बढ़ गया और उसे कम करने के लिए सरकार ने नियम बना दिये कि लोकम की रेट एक निर्धारित दर से अधिक नहीं हो सकती।

आप जबरदस्ती मूल्य निर्धारित कर सकते हैं, पर आप उससे माँग और पूर्ति के बढ़ने घटने को नहीं रोक सकते. जब लोकम की रेट फिक्स हो गई तो डॉक्टर्स की कमी हो गई, क्योंकि उस मूल्य पर एक्स्ट्रा काम करने का डॉक्टर्स का इंसेंटिव कम हो गया। आज कोरोना काल में हस्पतालों में मरीजों की संख्या बढ़ गई है, डॉक्टर्स के समय की माँग बढ़ गई है, उधर सरकारी नियम से अधिकतम लोकम रेट फिक्स है। नतीजा यह है कि उस बढ़ी हुई माँग की पूर्ति नहीं हो रही और हस्पतालों में सीरियस मरीज भी घंटों डॉक्टर का इंतज़ार करते हैं। मरीज की साँस फूलती है, वह बेदम हो रहा होता है, और हमारे पास उसे देखने का टाइम नहीं होता. यानि वह मूल्य जो सरकार नहीं देने को तैयार है, वह मूल्य एक मरीज दूसरे रूप में चुकाता है।

समाजवाद का एक मूल्य है जो हम सभी चुकाते हैं, पर हमें पता नहीं चलता। वह मूल्य है गरीबी। बाजार के इस नियंत्रण ने देश को, किसानों को गरीब रखा हुआ है, वहीं देश के अनेक भागों में लोग भूख से मर रहे हैं। यह इसलिए कि मूल्यों को अपना काम नहीं करने दिया जा रहा है। बढ़ी हुई या घटती कीमतें खलनायक नहीं हैं, ये एक मैसेंजर हैं। वे आपसे कुछ कहना चाहती हैं. वे बताना चाहती हैं कि माँग कितनी बढ़नी घटनी चाहिए, किस चीज का कितना उत्पादन करना है, आपूर्ति किधर करनी है…

Don’t shoot the messenger…

#BasicEconomics

– डॉक्टर राजीव मिश्रा

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