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25 दिसंबर 1927: क्यों है यह तिथि भारत के लिये धिक्कार दिवस ?

क्योंकि एक महान इकोनॉमिस्ट ने भारत की इकोनॉमिक हिस्ट्री नहीं पढ़ी। ब्रिटिश दस्युओं के लूट के कारण भारत मात्र 190 वर्षो में विश्व की सर्वोच्च इकनोमिक शक्ति से विश्व की निम्नतम इकोनॉमिक शक्ति में बदल गया। वे करोड़ों लोग जो हजारों वर्षों से भारत को सोने की चिड़िया बनाते आये थे, दाने दाने के लिए मुहताज हो गए।

अभी चार वर्ष पूर्व शशी थरूर ने ऑक्सफ़ोर्ड यूनियन में, तथा अभी एक वर्ष पूर्व भारत के विदेशमंत्री ने कहा कि ब्रिटिश दस्युवो ने 190 साल में 45 ट्रिलियन डॉलर की लूट किया। 1850 से 1947 के बीच लगभग 4 करोड़ भारतीय भुखमरी, और महामारियों के शिकार हो गए। इन महामारियों और भुखमरी से बचाने का उत्तरदायित्व किसका था?

इन महामारियों से बचने के लिये हिन्दू समाज ने सैनिटेशन, हाइजीन और परहेज ( Sanitation, Hygiene and Social distancing) का प्रयोग किया। जिसको दस्युओं ने डॉ आंबेडकर के सहयोग से अछूतपन से परिभाषित किया और बताया कि यह 3000 साल से चली आ रही परंपरा है और हिन्दू धर्म का स्वरूप है।

जिनको सैनिटेशन शब्द समझने में दिक्कत हो, उन्हें सेनिटोरियम शब्द समझना चाहिए। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की पत्नी कमल नेहरू को छूत की बीमारी (टी बी) थी। उन्हें अपने अंतिम समयकाल को विदेश के एक सैनिटोरियम में बिताना पड़ा था।
उसी के कारण 1927 में 25 दिसंबर को डॉ आंबेडकर ने मनुस्मृति को जलाया था। ग्रंथो को जलाना आतंकवादी मजहब और रिलीजन की परंपरा है हिंदुओं की नहीं। हिन्दू तो ग्रंथों का खंडन या मंडन करते हैं।

यह आर्टिकल पढिये। उस संशय से निकलने के लिये। उनके अनुयायियों को समर्पित है यह पुराना लेख:

वैदिक इकोनॉमिक मॉडल की एक झलक – जिसने हजारों वर्षों से भारत को सोने की चिड़िया बना रखा था।

आधुनिक समय मे पूंजीवादी और मार्क्सवादी दोनो इकनोमिक मॉडल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक में मात्र कुछ लोग पूंजी के मालिक होते हैं, बाकी सब नौकर होते हैं – इस मॉडल में अमीर और गरीब के बीच का फासला बढ़ता जाता है। मार्क्सवादी व्यवस्था में मालिक सिर्फ सत्ता पर काबिज होने वाले लोगो के हाँथ में होती है, बाकी सब नौकर होते हैं। यह सार्वभौमिक दरिद्रता के प्रसार का मॉडल हैं।

वैदिक इकनोमिक मॉडल में मालिक नौकर का सम्बंध नही होता, न equal ( समान ) बनाने का आकाशमार्गी झूंठ का उद्घोष करके इमोशनल अत्याचार करने का भ्रम फैलाया जाता है, सत्ता को हथियाने के लिए। इसमे equitable डिस्ट्रीब्यूशन होता है पूंजी का। सहभागिता और श्रम पर आधारित मॉडल हैं यह।

इस लेख में भारत मे यह मॉडल 200 वर्ष पूर्व तक सुरक्षित थी निरंतरता के साथ।

सोने की चिड़िया नामक सार्वभौमिक वैभव का निर्माण तब हुवा था, जब समाज केंद्रीय कानूनों से नही वरन स्वयं से प्रशासित था।

कानून तो बनाये ही गए भारत को लूटने और उसका दोषारोपण ब्रम्हानिस्म और मनुवाद पर करने हेतु।

1750 से 1900 के बीच भारत की जीडीपी विश्व जीडीपी का 25 प्रतिशत से घटकर मात्र 2 प्रतिशत बचती है। और जिसके कारण 800 प्रतिशत लोग बेरोजगार और बेघर हो जाते हैं ।
तीन वर्ष पूर्व जस्टिस मार्कण्डेय काटजू का भी एक लेख आया जिसमे उन्होंने अंग्रेजों कि इसी डस्ट कृत्य को जिम्मेदार ठहराते हुए 100 मिलियन लोगों यानि करोड़ लोगों की #भूख से मौत का जिम्मेदार ठहराया है।

गणेश सखाराम देउसकर और विल दुरान्त ने लिखा है कि मात्र 1875 से 1900 के बीच 2.5 करोड़ लोगों की मौत #अन्नाभाव और संक्रामक रोगों की चपेट में आने से हो जाती है , इसलिए नहीं कि अन्न की कोई कमी थी , बल्कि बेरोजगार हुये भारत का निर्माता वर्ग के पास जीवन रक्षा हेतु, अन्न खरीदने का पैसा नहीं था।
अंग्रेज नहीं मरता कोई?
सिर्फ भारतीय ही मरते हैं?

इसी को डॉ आंबेडकर ने एनी बेसेंट के हवाले से उनका 1909 के भाषण का उल्लेख किया है जिसमे बेसेंट जी ने कहा कि इंग्लैंड की 10 प्रतिशत जनसँख्या “The submeged tenth ( तलछट की आबादी ) और भारत की एक छठी आबादी Generic Depressed one sixth Class जैसी है जो रहने खाने और अशिक्षा सौच और जीवन यापन के लिए एक ही जैसा कार्य करती है यानि मेहतर भंगी और स्वीपर का काम।

लेकिन इसे विद्वानों ने इसके लिए भारत के ग्रंथों से बिना सन्दर्भ और प्रसंग से उद्दृत किये श्लोकों का हवाला देते हुए ब्रम्हानिस्म को जिम्मेदार ठहराया है। इस इतिहास लेखन में भारत के आर्थिक इतिहास को काटकर अलग कर दिया गया।

लेकिन ईसाई संस्कृतज्ञ विद्वानों द्वारा हमारे पूर्वजों को “धूर्त दुस्ट घमंडी ब्राम्हणों की” उपाधि से नवाजे जाने के पूर्व ,डॉ फ्रांसिस बुचनन की 1807 में लिखी एक पुस्तक (जिसका जिम्मा अंग्रेजी शासकों ने सौपा था ,दक्षिण भारर्त की जनता के बारे में , उनकी संस्कृति , और उस समय के व्यापार के बारे में ):

” JOURNEY FROM MADRAS through the countries of MYSORE CANARA AND MALABAR” PUBLISHED BY EAST INDIA COMPANY , के कुछ वाक्यांश , जो उस समय के भारत की झलक देते हैं।

(इस बात को ध्यान में रखा जाय कि 1750 तक भारत का सकल घरेलू उत्पाद विश्व का 25 %% था , जबकि ब्रिटेन और अमेरिका कुल मिलाकर मात्र 2% के हिस्सेदार थे। और पर कैपिटा industralisation और प्रति व्यक्ति आमदनी लगभग बराबर थी। आने वाले 50 वर्षों में यानि 1800 में भारत का शेयर गिरकर 20% तक पहुँच गया था , लेकिन 1900 वाला हाल नहीं हुवा था जब भारत के जीडीपी का शेयर मात्र 2 % बचा।

इस समय तक ईसाईयों को अभी ब्राम्हणों को धूर्त घमंडी और खड़यन्त्र कारी सिद्ध करने का अवसर नहीं आ पाया था।

विजय नगर के तुलवा क्षेत्र ,जो पहले जैन राजाओं के कब्जे में था जिसको बाद में हैदर और टीपू सुलतान ने अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया था , के बारे में डॉ बुचनन के उद्धरण :
(1) इस इलाके में 6 मंदिर और 700 ब्राम्हणों के घर थे , लेकिन जब टीपू सुलतान ने इस क्षेत्र पर कब्ज़ा किया इन ब्राम्हणों के घरों को तबाह। नष्ट कर दिया , और अब मात्र 150 ब्राम्हणों के घर बचे हैं।
(Vol iii,पेज – 75 )

(2) तुलवा में घाट के ऊपर बसने वाले ब्राम्हण ,वैश्य और अन्य जातियां अपने पुत्रों को वारिस मानते हैं , परन्तु राजा (क्षत्रिय ) और शूद्र,जो कि भूमि के मालिक हैं वे अपने बहनों के बच्चों को अपना वारिस मानते हैं।

शूद्रों को भी जानवर खाने और देशी शराब पीने की इजाजत नहीं है , सिर्फ क्षत्रियों को मात्र युद्ध के समय जानवरों कि हत्या करने और खाने की इजाजत है।ये सभी लोग अपने मृतकों को आग में जलाते हैं ( लाश को फूकते हैं )।
(Vol iii, पेज – 75 )

(३) मध्वाचार्य के अनुयायियों ने बताया कि तलुए के ब्राम्हण पंच द्रविड़ कहलाते हैं जो कि पूर्व में भारत के पांच अलग अलग राज्यों और भाषाओँ को बोलने वाले है , जिनमे तेलिंगा (आंद्रेय से ) , कन्नड़ (कर्णाटक से ) ,गुर्जर (गुजरात से) ,मराठी (महाराष्ट्र से ) ,तमिल बोलने वाले पांच भाषाओ को मिला कर पंच द्रविड़ का इलाका बनता है। लेकिन तमिल बोलने वाला इलाका द्रविड़ या देशम कहलाता है। इनकी शादी विवाह सिर्फ अपने ही मूल भाषा बोलने वालों के बीच होता है।
(Vol iii, पेज -90)

(4)इस क्षेत्र का एक्सपोर्ट और इम्पोर्ट गजट के अनुसार क्रमशः 9,63,833 रूपये (यानि एक्सपोर्ट ) और 1,08,045 रुपये (इम्पोर्ट ) है और एक रुपये की कीमत 2 पौंड के बराबर है।
( अर्थात एक्सपोर्ट लगभग इम्पोर्ट का 9 गुना , यानि कितने लोग रोजगार युक्त ,कितने टेचनोक्रट्स ,कितने interpreunerer , जो अगले 100 सालों में बेघर और बेरोजगार होने वाले हैं)

(Vol iii पेज- 246)

(5) एक चिका- बैली -करय नामक एक स्थान पर लोहे कि भट्ठी का वर्णन वे करते हैं कि वहाँ पर जो लोहा बनाया जाता था कच्चे आयरन ore से , स्टील बनाने की तकनीक का वर्णन करते हुए बुचनान बताता है कि गाँव के लोग किस तरह लोहा पैदा करते थे, उसका बंटवारा किस रूप से करते थे ?
इसी को वैदिक मॉडल ऑफ इकॉनमी कहते हैं। जिसमें कोई मालिक नही है, सब शेयर होल्डर हैं।

” Every 42 plough shares are thus distributed ———————————————————————–
To the proporieters —–11
tot he 9 charcoal makers ————9
To the iron smith ——————3.5
to the 4 hammer -men ——–7
to the 6 bellows -men ——–8
to the miner ——————-1
to the buffalo driver —————2.5
total ———————-42″

( Vol iii, page–362)

ये प्रमाण है इस बात का कि भारतीय समाज में आज से मात्र २०० साल पहले तक मालिक और श्रमिक के हिस्से बराबर तो नहीं लेकिन एकदम वाजिब होते थे, शोसण पर आधारित श्रम नहीं था , जैसा कि हमें पढ़ाया गया है , उससे एकदम इतर।

डॉ फ्रांसिस बुचनन आगे उद्धृत करते हैं कि Comarapeca कोंकणी कि एक ऐसी ट्राइब है , जो कि विशुद्ध शूद्र है, ये उस इलाके में ऐसे ही बसते हैं , जैसे मलयालम के विशुद्ध शूद्र nairs हैं। ये पैदाइशी खेतिहर और योद्धा हैं ,,और इनका झुकाव डकैती की तरफ रहता है ( ज्ञात हो कि बुचनन ने जब caste / ट्रेड की लिस्ट बनाई तो क्षत्रियों को संदेशवाहक ,योद्धा या डकैत क़ी श्रेणीं में डाला )। इनके मुखिया वंशानुगत रूप से नायक कहलाते हैं जो किसी को भी आपस में सलाह करके जात बाहर कर सकते थे। ये पुराने शाश्त्रों का अध्ययन कर सकते हैं और मांस तथा शराब का भी सेवन कर सकते हैं। श्रृंगेरी के स्वामलु उनके गुरु हैं जो उनको पवित्र जल . भभूत और उपदेश देते हैं शादी विवाह नामकरण और शगुन तिथियों को बताने के लिए इनके निश्चित ब्राम्हण पुरोहित हैं। ये मंदिरों में विष्णु और शिव जी क़ी पूजा करते हैं जिनकी देखभाल कोंकणी ब्राम्हण करते हैं। ये देवियों के मंदिरों में शक्ति क़ी पूजा भी करते हैं और पशुबलि भी चढ़ाते हैं।
कोंकण में रहने वाले ब्राम्हण जो मूलरूप में गोवा में रहते थे , पुर्तगालियों ने जब उनको गोवा से भगा दिया (नहीं तो धर्म परिवर्तन कर देते ) अब मुख्यतः व्यापारी हो गए हैं ,लेकिन कुछ लोग अभी भी पुरोहिताई करते हैं।

तुलवा भाषी मूलनिवासी , जो लोग खजूर/ ताड के पेड़ों से गुड और शराब बनाने के लिए उनका रस/जूस निकलते हैं उनको बिलुआरा (Biluaras ) नामक जात से जाना जाता है ,वे अपने को शूद्र कहते हैं लेकिन कहते हैं कि वे बुन्त्स (bunts ) से सामजिक स्तर पर नीचे मानते हैं। लेकिन इनमे से कुछ लोग खेती भी करते हैं , लेकिन ज्यादातर लोग मजदूर हैं इन खेतों में , लेकिन काफी लोग मालिक भी हैं खेतों के।

इनके आपसी मामलों को निपटने के लिए सरकार द्वारा एक व्यक्ति नियुक्त होता है जिसको गुरिकारा के नाम से जाना जाता है , उसे किसी व्यक्ति को अपने समाज के वरिष्ठ लोगों से सलाह करके ,जात बाहर करने या मृत्युदंड (कार्पोरल पनिशमेंट ) देने का अधिकार है। इनमे से कोई भी पढ़ा लिखा नहीं है। इनको मांस भाषण का अधिकार तो है परन्तु मदिरा पीने का हक़ नहीं है। इनका मानना है कि मृत्यपर्यंत अच्छे लोग स्वर्ग में जाते हैं , और बुरे लोग नरक में।जो लोग सक्षम है . वे लाशों को जलाते हैं परन्तु , गरीब लोग उनको जमीन में गाड़ देते हैं।

इनमे से कुछ लोग ही विष्णु जैसे बड़े देवताओं कि पूजा करते हैं , लेकिन ज्यादातर लोग “मरिमा” नामक शक्ति को बलि चढ़ाते हैं , बुरी आत्माओं को भगाने के लिए।
ज्यादातर बुलिआरों या उन लोगों के यहाँ जो शक्ति कि पूजा करते हैं, के शादी व्याह में या मृत्यु पर कोई पुरोहित मन्त्र या शास्त्र पढने नहीं जाता।

लेकिन जो बुलिअर विष्णु की पूजा करते हैं उनके पुरोहिताई का जिम्मा श्री वैष्णवी ब्राम्हणों का है।वे उनको उपदेश भी देते हैं ,Chaki’dntikam, भी देते हैं और पवित्र जल का छिड़काव भी करते हैं”।
( रेफ: डॉ फ्रांसिस बुचनन .a journey from Mdras through ,mysore Canara and Malabar ” Vol iii –पेज – 52-53)

buchanan classified all castes of south India 122 categories only , and as sole criteria being caste / trade Buliars were categorized as extractors of juice from palm tree and Buntus as Cultivators but both categorized under Shudras under Varna scale of Hindu DharmVarnashram .

बुचनन का नाम इतिहास के हर व्यक्ति को मालूम हैं।
शूद्र / दलित मृत्युदंड दे सकता था 1807 तक ?
शूद्र / दलित खेतों का मालिक भी हो सकता है , और खेतिहर किसान भी हो सकता है।
और ब्राम्हण उसका पुरोहित भी था?

बुचनान एक डॉक्टर था। साइंस की पृष्ठभूमि का। उसकी बुद्धि तथ्य खोजने वाली प्रतीत होती है।
उसने यह सर्वे 1800 AD में शुरू किया था।
उसके अनुसार द्रविड़ एक क्षेत्रीय अस्मिता वाला शब्द है।
अब आएंगे दस्युवो के साथ वाले धर्मान्ध ईसाई – मिशनरीज और प्रशासकों के भेष में।
वे पहले कल्पना के पर लगाकर यह सिद्ध करेंगे कि द्रविड़ कोई क्षेत्रीय अस्मिता न होकर एक अलग भाषा है जिसका संस्कृत से सम्बन्ध न होकर हिब्रू भाषा से सम्बन्ध है।
फिर एक विलियम मोनिर मोनिर नामक मैक्समुलर का प्रतिद्वंदी आएगा जो यह सिद्ध करेगा कि द्रविड़ भाषा नही, वरन एक नश्ल है।

भारत के कृषि शिल्प वाणिज्य को नष्ट किया जाएगा जिससे करोड़ो लोग भुखमरी और संकामक रोगों की चपेट में आकर मृत्यु का वरण करेंगे।
उधर यूरोप में बैठकर मैट्रिक पास प्रोफेसर और डॉक्टर मैक्समुलर आर्यन अफवाह की रचना करेगा।
1872 फ्रस्टेट मिशनरी एम ए शेरिंग अकारण ही ब्राम्हणो को दुष्ट, अहंकारी और स्वार्थी जैसे गाली देने का टेमपलेट तैयार करेगा।
कुल मिलाकर 1900 आते आते अपने अपराधों के कारण बेघर बेरोजगार और मृत्यु से संघर्षरत भारतीयों की इस दशा के लिए ब्रम्हानिस्म और मनुवाद को दोषी ठहराया जाएगा।
हिंदुओं के तीन वर्ण जिनको वह आर्यन कहते थे, उन्हें 1901 में तीन ऊंची कास्ट में चिन्हित किया जाएगा, बाकी समस्त समुदायों को नीची जाति में।
आगे की कथा हम कई बार लिख चुके हैं।

यह पुस्तक तीन वॉल्यूम में संकलित है। लगभग 1450 पेज में। गूगल आर्काइव से फ्री डाउनलोड कर सकते हैं।
3000 वर्षो की अछूत कथा धड़ाम से गिर पड़ेगी क्योंकि इसके 1450 पेजो में एक पैराग्राफ भी अछूतपन और अछूत के बारे में नहीं है।

–डॉ0 त्रिभुवन सिंह

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