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गोडसे के बिना गाँधी का सही मूल्यांकन संभव नहीं

गोडसे ने गाँधी को मारा, इस बात को गला फाड़-फाड़कर कहनेवाले यह भी बताते कि गोडसे ने गाँधी को क्यों मारा? मई १९ को गोडसे का जन्मदिन होता है। एक बात मेरे अंदर धँस गई है, वह यह कि गोडसे ने अपनी अस्थियों को सिंधु नदी में तब प्रवाहित करने को कहा था जब हमारे पूर्वजों के तारणहार सिंधु नदी पर हिन्दुस्तान का पुनः अधिकार हो जाए।

आज सिंधु का अधिकांश हिस्सा पाकिस्तान में है, वही पाकिस्तान जिसके बारे में गाँधी ने कहा था: मेरी लाश पर ही पाकिस्तान बन सकता है। लेकिन पाकिस्तान बन भी गया, गाँधी के जिन्दा रहते उसने भारत पर अक्टूबर 1947 में हमला भी कर दिया था। और तो और, हमलावर पाकिस्तान को बिना शर्त 55 करोड़ रुपये दिलाने के लिए वे भूख हड़ताल की धमकी भी दे चुके थे।

लब्बोलुआब यह है कि गाँधी को गोडसे के बिना नहीं समझा जा सकता। जिस तरह गाँधी सिर्फ नायक नहीं, वैसे ही गोडसे सिर्फ गाँधी-हत्यारे नहीं। एक चीज़ जो दोनों में कॉमन है वह है देशप्रेम और मौलिकता। जो चीज़ अलग है वह है हिंदुस्तान के छुपे रुस्तम पाकिस्तानियों से निपटने की रणनीति।

गाँधी की रणनीति फेल हो गई, इसका प्रमाण है कि आज हिन्दुस्तान में न जाने ‘कितने पाकिस्तान’ उठ खड़े हो गए हैं। इतना ही नहीं, पूरी दुनिया इन ‘पाकिस्तानों’ से इतना त्रस्त है कि पाकिस्तान और इस्लाम आज वैश्विक आतंक का पर्याय बन गए हैं।

जिन लोगों को सिर्फ इसलिए गोडसे पर पुनर्विचार नहीं करना कि उन्होंने गाँधी को मारा, उन्हें करोड़ों के नरसंहार के कारक पैग़म्बर मोहम्मद, मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, माओ आदि के बारे में क्या कहना है?

दूसरी तरफ़ अगर अहिंसा ही एकमात्र औजार हो गाँधी और गोडसे के व्यक्तित्व के तुलनात्मक मूल्यांकन का तो यह भी देखना पड़ेगा कि उनकी अहिंसा की नीति से क्या सचमुच आम निर्दोष लोग लाभान्वित हुए या वे और ज्यादा हिंसा का शिकार हो गए? हज़ारों साल की मानव सभ्यता का अनुभव बताता है कि जिन समाजों ने प्रतिहिंसा की मुकम्मल तैयारी नहीं की, वे बर्बर और असभ्य समुदायों की हिंसा का शिकार हुए, मिट गए या सदियों गुलाम रहे। ईसापूर्व के यूरोपीय-अमेरिकी-अफ्रीकी समाज इसके उदाहरण हैं, इस्लाम-पूर्व के अरब-उत्तर अफ्रीकी-पश्चिम-मध्य एशिआई देश भी इसकी निशानदेही करते हैं।

ये सब देश-समाज और इनकी सभ्यता-संस्कृति बाइबिल और क़ुरआन की उन बर्बर अवधारणाओं की शिकार हुईं जिनके अनुसार अपने से इतर (ग़ैर-ईसाई, ग़ैर-मुसलमान) लोगों के लिए दो ही विकल्प थे: मतान्तरण या मौत।

बाइबल की ‘करुणा की ज्वाला’ में 30 करोड़ से अधिक निर्दोष लोग स्वाहा कर दिए गए, इस्लाम की ‘शांति की खाड़ी’ में 27 करोड़ से अधिक लोग दफन कर दिए गए, और साम्यवाद की ‘समानता की क्रान्ति’ महज 100 सालों के अंदर 10 करोड़ सर्वहारा को लील गई।

एक बात जरूर है कि बाइबल और क़ुरआन की बर्बरता को उन्नीसवीं सदी में मार्क्स-एंगेल्स ने आधुनिक जामा पहनाया जिस कारण करोड़ों के नरसंहार के कारक लेनिन-स्टालिन-माओ महानायक का दर्जा पाने में सफल हुए।

थोड़ा और पीछे जाएँ तो अहिंसा के परम उद्गाता महात्मा बुद्ध पर भी पुनर्विचार करना पड़ेगा। क्या यह सही नहीं है कि भारत के वे हिस्से(गाँधार, पश्चिमी पाकिस्तान, तक्षशिला, नालंदा, कश्मीर आदि) इस्लामी बर्बरता के सबसे ज़्यादा शिकार हुए जहाँ बौद्ध धर्म का असर ज्यादा था और जहाँ के लोगों में आत्मरक्षार्थ प्रतिहिंसा की क्षमता न्यून हो गई थी। अफगानिस्तान की हिन्दुकुश पर्वतमाला का नाम ही बताता है कि वहाँ हिंदुओं/बौद्धों का भीषण नरसंहार हुआ था। हिन्दुकुश को बौद्धकुश इसलिए नहीं कहा गया होगा कि बर्बर इस्लामी हमलावरों की निगाह में हिन्दू-बौद्धों में कोई अंतर नहीं था, उनके लिए सब-के-सब काफ़िर हिन्दू ही थे।

सवाल उठता है कि भारतीय बौद्धों में प्रतिहिंसा के भाव की कमी और इस कारण हुए उनके जातिनाश के लिए क्या बौद्धमत और उसके प्रतिपादक महात्मा बुद्ध जिम्मेदार नहीं हैं? ऐसे में महात्मा गाँधी की अहिंसा ने भी अगर हिन्दुस्तान को बर्बर मतों के अनुयायियों की हिंसा के हवाले किया तो क्या अहिंसा के पुजारी गाँधी इसकी जिम्मेदारी से बच सकते हैं?

वह अहिंसा भी किस काम की जो दुश्मनों को हिंसा के लिए आमंत्रण दे? इसलिए गाँधीजी का सही मूल्यांकन सिर्फ उनके ‘सत्य के प्रयोग’ के आधार पर नहीं हो सकता। इसके लिए गाँधी को मारनेवाले नाथुराम गोडसे की पुस्तक ‘मैंने गाँधी वध क्यों किया?’ का सहारा लेना ही होगा क्योंकि इस पुस्तक में गाँधी की अहिंसा-नीति के भीषण हिंसात्मक परिणामों की सप्रमाण चर्चा है।

साभार: चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह

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