बिहार की कमोबेश 15% आबादी मुसलमान है। बेगूसराय में भी लगभग यही हाल है। लेकिन कहते हैं कि वहाँ से मई २०१९ में चुनाव लड़ने वाले कन्हे-मियाँ के इर्दगिर्द 70% लोग शान्तिदूत हैं।
बेगुसराय ने गिरिराज सिंह जैसे क़द्दावर नेता को जिताकर कम से कम इस बार तो कन्हे-मियाँ के सपनों पर लाल पानी डाल दिया। यह तब की एक झाँकी मात्र है जो इस लाल तस्वीर की लालिमा हटाकर सच के कुछ अनछुए पहलू प्रस्तुत करती है…
उनकी गाड़ियों का काफ़िला, उनके कर्ताधर्ता, उनके बाउंसर, उनका खर्च उठानेवाले—सबमें भारत की ‘बर्बादी वाले इंशाल्लाह’ की गगनभेदी उपस्थिति है। कुछ-कुछ जेएनयू में उस जुलूस जैसा जिसमें नारे लगे थे:
भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशाल्लाह इंशाल्लाह…
भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी जंग रहेगी…
अफ़ज़ल हम शर्मिंदा हैं तेरे क़ातिल ज़िंदा हैं…
कितने अफ़ज़ल मारोगे हर घर से अफ़ज़ल निकलेगा…
कन्हे-मियाँ की कृपा से बेगूसराय में गंगा-यमुनी तहजीब के चाँद-तारे अपनी हरियाली छटा बिखेर रहे हैं। कॉमरेड अख़्तर और कॉमरेड शहला ने शायरी और शबाब का ऐसा सम-भोगी सहज साम्यवाद प्रस्तुत किया है कि वहाँ के लोग देखते-सुनते अघा नहीं रहे हैं:
हे हो बरगाही भाय…सबके छू छा के देखलहो कि नै? कन्हे-मियाँ के टक्कर में कोई नै हौ… ई छौरवा
तअ सबके औकाद नअ बताय देलकै… लेकिन भोटवा तअ एई बार मोदिये के नअ जतै…बरगाही भाय देस हय तबै नअ कोई जात-बेयादर के भैलू होतय…
तभी उधर से कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता सिंह जी आते दिखाई दिए और नारा लगना शुरू हो गया:
नेता नहीं बेटा है कन्हैया कुमार
नया नज़रिया वाला है कन्हैया कुमार…
थोड़ी देर बाद कॉमरेड शहला भी आती दिख गईं और काम-रेड गुनगुनाने लगे:
हम होंगे कामयाब हम होंगे कामयाब
हम होंगे कामयाब एक दिन…
यह सब होते-होते सूरज सर के ठीक ऊपर आ गया था और सबके लिए खाने का बुलावा भी। लोग टेम्पोररी पार्टी प्रचार ऑफिस की तरफ़ बढ़ चले। रास्ते में एक मूँछ-उठान लड़का साइकिल चलाता हुआ डायलॉग-नुमा अंदाज़ में बोलता जा रहा था:
‘जब नाश मनुज पर छाता है पहले विवेक मर जाता है।’
एक ज़माने में बेगूसराय को भारत के कम्युनिस्टों का लेनिनग्राद कहा जाता था। 1990 के दशक में सीपीआई ने लालू प्रसाद का समर्थन कर दिया जिनका नारा था:
भूरा बाल साफ़ करो।
मतलब भूमिहार (भू) , राजपूत (रा), ब्राह्मण(बा) और लाला (ल) यानी कायस्थों को खतम करो। इस दौरान लूट, अपहरण, हत्या, बलात्कार और नक्सली-माओवादी अराजकता को सरकारी वरदहस्त प्राप्त था। ऐसे में हिन्दुस्तान के ‘लेनिनग्राद’ बेगूसराय के भूमिहार भी कम्युनिस्ट पार्टी से खिसक लिए, उनके अस्तित्व पर बन आई थी।
अस्तित्व पर ख़तरे को भाँप यहाँ से एक-से-एक अपराधी पैदा होने लगे। फिर आरा-बक्सर में उन्हें थोड़ी आशा की किरण दिखाई दी जहाँ नक्सली अपराधियों से लोहा लेने के लिए ‘रणवीर सेना’ ने मोर्चा खोल दिया था। इसके नेता थे ब्रह्मेश्वर सिंह ‘मुखिया’ जिन्होंने सरकारी समर्थन-प्राप्त नक्सलवाद से लोहा लेने का स्थानीय लोगों के समर्थन वाला एक नया मॉडल प्रस्तुत किया।
रेड कॉरिडोर के छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और झारखंड के लिए भी इसमें सीखने को बहुत कुछ है। दुर्भाग्य से मुखिया जी जैसे महानायक को खलनायक साबित करने में बिहार और बिहार के बाहर के बुद्धिजीवियों ने कोई कसर नहीं उठा रखी।
– चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह