औरैया के मंदिर के 3 पुजारियों की हत्या करने वाले नराधम, पिशाच पकड़े गये। इन्होंने सोये हुए पुजारियों को चारपाई से बांध कर, उनकी जीभ काट कर, तड़पा-तड़पा कर उनकी हत्याएं की थीं। हत्याओं का कारण यह था कि पुजारी क्षेत्र में हो रही गौतस्करी, गौहत्या के विरोध में आवाज़ उठाते थे। गौतस्करी के विरोध में उन्होंने थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई थी। गौतस्करों ने उन्हें अपने व्यापार में बाधक पा कर उनके प्राण ले लिये।
कुछ दिन बाद यह समाचार पुराना हो जायेगा। सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया की नज़र से उतर जायेगा। समय बीतते जाने के साथ अभी क्षेत्र के लोगों में धधकती हुई आग मंद पड़ जायेगी। केस के गवाह शिथिल हो जायेंगे और टूट जायेंगे। कुछ वर्ष तक न्यायिक व्यवस्था के छोटे-मोटे थपेड़े खा कर अंततः हत्यारे छूट जायेंगे। आज तक यही होता आया है।
अब जिस मंदिर में हत्यायें हुई हैं, कुछ समय बाद किसी का भी जाना-आना बंद हो जायेगा। नये पुजारी नहीं आएंगे। मंदिर पर ताले-जाले लग जायेंगे। जल्दी ही इस क्षेत्र के हिंदू इस स्थान को छोड़ कर मकान-दुकान आने-पौने दामों पर बेच कर दूसरे स्थानों को चले जायेंगे। परिणामस्वरूप गौतस्करी का रूट निरापद हो जायेगा। कोई भी गौतस्करी-गौहत्या का विरोध करने वाला नहीं बचेगा। होगा भी तो देख कर भी चुप लगा जायेगा और राष्ट्रविरोधियों का लक्ष्य पूरा हो जायेगा।
ग्रामीण क्षेत्र के मंदिर, आश्रम अब भी गाँव से दूर, निर्जन क्षेत्रों में होते हैं। इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के साथ असामाजिक तत्व कुछ दुष्टता करें तो रक्षा के लिये क्या हो सकता ? पुलिस तो घटना घटने के बाद सक्रिय होती है तो ऐसे एकांत में रहने वाले क्या करें ? इस पर संतोष करें कि उनकी हत्या के बाद पुलिस अपराधियों को निश्चित रूप से पकड़ लेगी ? चलिए मान लेते हैं कि न्याय व्यवस्था इन्हें अवश्यमेव दंडित करेगी मगर इससे निर्दोष मारे गये साधुओं के प्राण वापस तो नहीं लौट आएंगे।
विचार कीजिये कि इन साधुओं के पास शस्त्र होने तो क्या होता ? क्या इतनी सरलता से यह मारे जाते ? पौरुष की अभिव्यक्ति सदैव शस्त्रों से होती है। आपको सम्भवतः न पता हो कि घर की रसोई में प्रयोग होने वाला मूठ सहित 9″ से बड़ा कोई भी चाक़ू क़ानून की दृष्टि में अवैध होता है। तलवार, भाला, खुकरी, भुजाली, कांता, कत्ती जैसा कोई भी शस्त्र अवैध, अनुचित होता है। स्वयं से प्रश्न कीजिये कि शस्त्रों का पूजन करने वाले एक मात्र धर्म के लोग क़ानूनी रूप से अपने शस्त्र छिनना कैसे सहन कर सकते हैं ? अपने मानबिन्दुओं की इस हद तक अवहेलना कैसे झेलते हैं ?
अंग्रेज़ों ने हमसे सायास शस्त्र छीने थे किंतु स्वतंत्र होने के बाद हमने इस क़ानून में बदलाव क्यों नहीं किया ? आख़िर स्वतन्त्रता भयानक रूप से रक्तरंजित थी। 50 लाख लोग मारे गए थे। करोड़ों विस्थापित हुए थे। असंख्य बलात्कार, अपनी स्त्रियों का छीना जाना, जिस समाज ने झेला हो, उसे क्या शस्त्रों का महत्व सिखाना पड़ेगा ? एक स्त्री के हरण पर समुद्र पार कर लंका पर चढ़ दौड़ने वाले, एक स्त्री के अपमान पर महाभारत रचाने वाले पूर्वजों की संतान क्या हम ही हैं ?
राष्ट्र मूलतः एक आर्थिक सत्ता है। शेष सारे उपक्रम, संस्थान इसके सुचारु संचालन, रक्षण की व्यवस्था होते हैं। इसकी रचना में बदलाव होना, इसका छिनना यानी समाज के हाथों से अर्थतंत्र का जाना होता है और यह लगातार हो रहा है। हमारी आस्था पर प्रहार, हमारे मानबिन्दुओं की दुर्गति हो रही है अतः पौरुषपूर्ण व्यवहार के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है। आवश्यक है कि अंग्रेज़ों के बनाये शस्त्र क़ानून में बदलाव किया जाये और राष्ट्र की संतानों के हाथ में शस्त्रों की अबाध स्वतंत्रता निश्चित की जाये। राष्ट्र बड़े संकट में घिरता दिखाई दे रहा है। आवश्यक है कि पुलिस, सेना के साथ-साथ इसकी संतानें भी प्रचंड, शस्त्रसन्नद्ध हों और राष्ट्र का रक्षण करें
तुफ़ैल चतुर्वेदी