सन १९४७ के बाद हमारा देश पहली बार वास्तविक अर्थों में आपातजनक हालातों के दौर से गुजर रहा है । हालांकि सन १९७४ में तत्कालीन कांग्रेसी केन्द्र सरकार की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने आपात शासन लागू कर देश के लोकतंत्र को बंधक बना लिया था, तथापि जिन हालातों के आधार पर उन्होंने आपात की घोषणा की थी वो वास्तव में आपातजनक थे नहीं ।
उन्होंने तो निजी स्वार्थ के वशीभूत हो कर प्रधानमंत्री-पद पर बलात ही बने रहने के लिए आपात शासन लागू करने के सांवैधानिक अधिकार का नाजायज इस्तेमाल किया था । मालूम हो कि इन्दिरा गांधी ने भारतीय संविधान के जिस अनुच्छेद ३५२ में किए गए प्रावधान के सहारे देश पर आपात-शासन थोप दिया था, उसमें साफ-साफ यह उल्लेख है कि “यदि राष्ट्रपति आश्वस्त हों कि देश में ऐसी गम्भीर स्थिति उत्पन्न हो गई है , जिससे आन्तरिक उपद्रव या गृह-युद्ध अथवा बाहरी आक्रमण के रुप में भारत की सुरक्षा खतरे में पड सकती है, तब वे इसकी उद्घोषणा कर के आपात शासन की अधिसूचना जारी कर सकते हैं” ।
किंतु सन १९७४ में देश के भीतर ऐसी स्थिति तनिक भी नहीं थी , अलबत्ता इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक फैसले से सिर्फ इन्दिरा गांधी की कुर्सी के समक्ष खतरा अवश्य उत्त्पन्न हो गया था ।
उल्लेखनीय है कि जून १९७४ में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इन्दिरा गांधी के संसदीय-चुनाव को कदाचार-युक्त प्रमाणित करते हुए संसद की उनकी सदस्यता को अवैध घोषित कर उन्हें जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा १२३(७) के तहत आगामी छह वर्षों तक कोई भी निर्वाचित पद ग्रहण करने के अयोग्य करार दे दिया था ।
जाहिर है , ऐसे में प्रधानमंत्री के पद पर इन्दिरा का बने रहना मुश्किल हो गया था । पहले से ही भ्रष्टाचार के कई मामलों में विपक्षी दलों के विरोध और अपनी ही कांग्रेस के भीतर प्रतिद्वंदी नेताओं का असहयोग झेल रही इन्दिरा के खिलाफ देश भर में आक्रोश-असंतोष फ़ूट पडा था ।
जब उनसे इस्तीफा मांगा जाने लगा था तब तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष दयाकान्त बरुवा ने वंशवाद की चापलूसी के सारे रिकार्ड तोडते हुए जिस नेहरु-पुत्री की खिदमत में ‘इन्दिरा इज इण्डिया व इण्डिया इज इन्दिरा’ का नारा उछाल रखा था, उस इन्दिरा की कांग्रेस व कांग्रेस की इन्दिरा ने इस्तीफा देने के बजाय उनके विरुद्ध फैसला देने वाले न्यायालय सहित समस्त लोकतान्त्रिक संस्थाओं का ही गला घोंट दिया।
२५ जून १९७५ की आधी रात को आपात-शासन की घोषणा कर अगले कुछ ही दिनों के अन्दर तमाम विरोधियों-विपक्षियों को कारागार में डालवा कर प्रेस-मीडिया को भी प्रतिबन्धित कर किस-किस तरह से अपनी अवैध सत्ता का आतंक बरपाया, सो पूरी दुनिया जानती है ।
उस आपात शासन का अनुचित औचित्य सिद्ध करने वाली आपात-स्थिति सिर्फ इतनी ही और सिर्फ यही थी । सिवाय इसके , न आतंकी वारदातों की व्याप्ति थी , न देश की सम्प्रभुता को कोई चुनौती ; न तख्ता-पलट का कोई गुप्त षड्यंत्रकरी सरंजाम था , न प्रायोजित झूठी खबरों-अफवाहों का भडकाऊ अभियान ; न विदेशी शक्तियों से देशी गद्दारों के गठजोड का आलम था और न ही केन्द्रीय संस्थाओं के विरुद्ध प्रान्तीय सरकारों का बगावती उल्लंघन । सेना पर अविश्वास-आरोप की छिरोरी और प्रधानमंत्री पर सरेआम कीचड उछालने की सीनाजोरी तो थी ही नहीं ।
किन्तु आज ? अपना देश जब पाकिस्तानी हिंसक आतंकी दहशतगर्दी से जूझ रहा है और उससे निजात दिलाने वास्ते हमारी सेना के जवान जब सैन्य अभियान चला रहे हैं, तब केन्द्र-सरकार के फैसलों पर अनाप-शनाप बे-सिर-पैर के सवाल उठाते हुए पूरा प्रतिपक्ष न केवल सेना को कठघरे में खडा करने को उद्धत है , बल्कि स्वयं भी पाकिस्तान की तरफदारी में उतर आया है ।
ऐसा प्रतीत होता है जैसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को आगामी चुनाव के राजनीतिक समर में हराने के लिए भाजपा-विरोधी विपक्षी दलों के गिरोह ने सामरिक राजनीति का भारत-विरोधी मोर्चा खोल शत्रु-देश-पाकिस्तान के हुक्मरानों व आतंकियों से हाथ मिला रखा है ।
पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकियों के पुलवामा हमले के कुछ ही दिनों बाद कतिपय विपक्षी नेताओं द्वारा यह कहना कि नरेन्द्र मोदी ने ही चुनाव जीतने के लिए उसे अंजाम दिलाया और अब अनेक माध्यमों से पूर्व की घटनाओं के तार जोड कर यह खुलासा होना कि कांग्रेस ने मोदी को हराने के लिए नवजोत सिद्धु व मणिशंकर अय्यर के मार्फत पाकिस्तानी हुक्मरानों से सांठ-गांठ कर के इसे अंजाम दिलाया… ये दोनों ही कांग्रेसी कथ्य व कृत्य महज आरोप-प्रत्यारोप के सामान्य उदाहरण मात्र नहीं हैं , अपितु एक निर्वाचित सरकार को अपदस्थ करने वाले असामान्य अपराध हैं, जिसे राज-द्रोह भी कहा जा सकता है और राष्ट्र-द्रोह भी ।
पुलवामा हमला के प्रतिशोध-स्वरुप पाक-प्रायोजित आतंकवाद को मिटाने के लिए भारतीय सेना द्वारा किये गए हवाई हमले के बाद विपक्षियों की ओर से उक्त सैन्य-कार्रवाई पर सवालें खडा करने और भारत-सरकार के प्रधानमंत्री को श्रेयहीन करने का वह ‘द्रोह-राग’ लगातार तेज होता जा रहा है ।
सत्ताधारी भाजपा-मोदी के विरुद्ध कांग्रेस के संरक्षण-समर्थन में देश भर के २१ विरोधी-विपक्षी दलों के नेताओं द्वारा भारतीय सेना व भारत सरकार के विरुद्ध आम जनता को बरगलाने-भडकाने और दुनिया भर में भारत की कूटनीतिक छवि को खराब करने की जो कोशिशें की जा रही हैं, सो कोई सामान्य राजनीतिक संवाद अथवा लोकतांत्रिक वाद-विवाद नहीं हैं ।
ये तो आपात-स्थिति के हालात हैं । क्योंकि, विपक्षी दलों के नेताओं की ऐसी कारगुजारियों के हवाले से शत्रु पाकिस्तान दुनिया भर में भारत का पक्ष कमजोर करने और स्वयं को निर्दोष प्रमाणित करने के दुष्प्रचार में जुट गया है , तो जाहिर है ये हालात अंततः भारत राष्ट्र की सुरक्षा व अखण्डता को कमजोर करने में भी सहायक सिद्ध हो सकते हैं ।
मालूम हो कि आपात के ये हालात पुलवामा हमला के बाद ही उत्त्पन्न नहीं हुए हैं, बल्कि पहले से ही नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद कांग्रेसियों कम्युनिष्टों और उनके चट्टे-बट्टे सपा-बसपा-राजद-तृमूका-तेदेपा-आआपा आदि दलों के भ्रष्ट-बिकाऊ नेताओं का मोदी-विरोध मोदी जी की सदासयता-सहिष्णुता के कारण बढते-बढते कानून-व्यवस्थाओं व सांवैधानिक व्यवस्थाओं के भी विरोध का रुप लेता हुआ अब इस तरह से भारत-विरोध में तब्दील हो चुका है ।
जे०एन०यू० में आतंकियों के समर्थन व भारत-विखण्डन का नारा लगाने वालों के विरुद्ध न्यायालय में सुपुर्द आरोप-पत्र के बावजूद दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल द्वारा देशद्रोह का मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं देना एवं मोदी-भाजपा-विरोधी महागठबन्धन के नेताओं का उन देशद्रोहियों के पक्ष में खडा होते रहना तथा सारधा-घोटाला मामले में बंगाल पुलिस कमिश्नर से पूछताछ करने कोलकाता गए सीबीआई अधिकारी को वहां की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा गिरफ्तार करा लेना और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुडे राफेल विमान-खरीद मामले में बेवजह टांग अडाते हुए कांग्रेस-अध्यक्ष द्वारा प्रधानमंत्री मोदी को बिना किसी आधार के ही ‘चोर’ कहते रहना…
कश्मीरी अलगाववादियों-आतंकियों के समर्थन में बयानबाजी करना या प्रधानमंत्री मोदी की हत्या का षड्यंत्र रचने वालों का राजनीतिक बचाव करना अथवा प्रचण्ड बहुमत प्राप्त प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध देश भर में काल्पनिक डर व असहिष्णुता का वातावरण बनाने हेतु कतिपय पत्रकारों-साहित्यकारों-कलाकारों द्वारा साजिशपूर्वक सरकारी पुरस्कार और सम्मान वापस करना-करवाना…
ऐसी तमाम अवांछनीयताओं को अंजाम देने वालों के तथाकथित महागठबन्धन द्वारा अब एकबारगी पाकिस्तान की ही तरफदारी करने लगना वास्तव में आपात-शासन लागू करने के पर्याप्त कारण बनाने वाले हालात प्रतीत होते हैं ।
बावजूद इसके, पर्याप्त कारण के बिना ही महज स्वयं की राजनीतिक सुरक्षा-महत्वाकांक्षा के लिए इन्दिरा कांग्रेस द्वारा देश के निरापद हालातों में भी जनता पर आपात-शासन थोप दिए जाने का दंश झेल चुके होने के बाद भी नरेन्द्र मोदी ऐसे आपद हालातों से देश को उबारने का वह संविधान-प्रदत उपचार-अधिकार (अनुच्छेद-३५२) आजमाने के बजाय चुपचाप आम चुनाव की तैयारी में ‘बूथ मजबूत’ करते कराते हुए देखे जा रहे हैं , तो यह लोकतंत्र के प्रति उनकी निष्ठा व लोकतांत्रिक आदर्शवादिता के प्रति उनकी आस्था की पराकाष्ठा है ।
साथ ही इन्दिरा-कांग्रेस के उस अनुचित आपात शासन से देश को उबार कर लोकतंत्र को नवजीवन प्रदान करने में सर्वाधिक मुखर भूमिका निभाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्कारों से संस्कारित उनकी राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा की परीक्षा भी है और उसका परिणाम भी ।
अन्यथा, कभी देश बचाने तो कभी संविधान की रक्षा करने के नाम पर कोतवाल को ही डांटते रहने वाले ये तमाम चोर बिना किसी दलील-अपील-वकील के ही कारागारों में सड रहे होते और दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र ऐसे खर-पतवारों के प्रदूषण से मुक्त हो चुका होता ।